वेदों में भारतीय संस्कृति | Vedo Me Bhartiya Sanskriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न र४- पथु भी कहा जाता है । इसी पशु के सम्बन्ध से आत्मा को पशुपति भी कहा जाता है । इसी प्रकरण में ईश्वर प्रजापति और जीव प्रजापति का निरूपण है । साथ ही ईदवर और जीव का साधर्म्य और वैधम्यं थी निरूपित है । के तीसरे खण्ड में ऋषि-पित-देवता आदि का निरूपण हैं । ऋषि शब्द के सम्बन्ध में श्रुतियों में अनेक लक्षण दुष्टिगत होते हैं । कहीं प्राणा वाव ऋषय कहकर उसे प्राण कहा गया है उसे ही वहीं असत्‌ भी कहा गया है । वेद मन्त्रों के द्रृष्टा ऋषि प्रसिद्ध ही हैं । इस प्रकार ऋषियों के लिए जो अनेक लक्षण मिलते हूं उनका निरूपण किया गया हैं । मनु ने लिखा है-- ऋषिभ्य पितरों जाता पितृभ्यों देवदानवा । इसके अनुसार ऋषि से पिंतु और पितु से देव दानवों की सृष्टि मानी गयी हैं । अतः यहीं क्रमप्राप्त पितृ और देव का भी संक्षिप्त निरूपण किया गया है । तृतीय अध्याय में भारतीय आर्यों की संस्कृति का उल्लेख है उसी के अंगभूत वर्ण और आश्रम का विवेचन है । धर्म अर्थ काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं । प्रसंग प्राप्त इनका भी यहाँ निरूपण हुआ है । संस्कृत भाषा में धर्म दाब्द अत्यन्त व्यापक माना गया है अतः इसका यहाँ पथक विवेचन हुआ है । वर्ण व्यवस्था संस्कार पर निर्भर हैं। बिना संस्कार के वर्ण की रक्षा सम्भव नहीं है अत संस्कार भी आयें संस्कृति के मुख्य अंग माने गये हैँ । अतः संस्कार पर भी यहां कुछ विवेचन आवश्यक प्रतीत हुआ | संस्कृति का ही दूसरा आवद्यक अंग यज्ञ है । -यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ कमें कहा गया है । यज्ञ के द्वारा ही सर्वाभीष्ट सिद्धि विहित है जैसा कि गीता में कहा गया है-- एप वो स्त्विष्ट- कामधुक्‌ । इसलिए यज्ञ विज्ञान पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है । यज्ञ मुख्य रूप से प्राकृतिक है । प्रकृति में यह यज्ञ निरन्तर होता रहता है और उसी यज्ञ से समस्त पदार्थों की सृष्टि और रक्षा होती रहती है । अ्नि में सोम की आहुति ही यज्ञ है। सूय॑ की अग्नि में सोम की आहृति अनवरत होती रहती है । इसी यज्ञ के द्वारा सुर्य के स्वरूप की रक्षा होती है और इसी यज्ञ के द्वारा सौर संस्था में समस्त पदार्थों का निर्माण होता रहता है-- सूय॑ आत्मा जगतस्तस्थुषरुच इसी दृष्टि से कहा गया हैं । महर्षियों ने . अपनी आें दृष्टि से इस प्राकृतिक यज्ञ प्रक्रिया का साक्षात्कार किया और तदचुरूप वैधानिक यज्ञ की कल्पना करके अपने समस्त अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त करने में सामर्थ्यं लाभ किया था । प्रकृति के विधान के अनुसार प्राणदेवताओं के द्वारा सकलाथं सिद्धि का साधन हे वैधानिक यज्ञ ही था । वर्तमान काल में उसकी यथाविधि इतिक्तव्यता के अभाव में यज्ञ की वह शक्ति दृष्टिंगोचर नहीं होती यह भिन्न बात है ।- तत्रापि इस क्षीणशक्ति युग में भी यज्ञ के द्वारा अपेक्षाकृत इष्ट साधन होता ही है । अतः इस प्रकरण में यज्ञ




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