विवाह की मुसीबतें | Vivah Ki Musibatein

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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की पूर्ति से ममप्टि की आवश्यकता आप-से-्आप पूर्ण हो जाती है। किन्तु, इसके बाद प्रेम का जो एक विशाल मनोमय साम्राज्य बच जाता है, उसमे व्यक्ति ही विहार करते है। केवल झारीरिक मिलन को प्रेम कहना चाहिए या नही, यह विषय सदिग्ध माना जाना चाहिए। शायद, वह प्रेम नही है। प्रेम की सार्थकता दम्पति के तन, मन और आत्मा के एयाकार होने मे है। और प्रेमियों मे भी श्रेष्ठ वे हैं, जो केवल काम पर दस न मानकर सदसे अधिक रस उन झकारो का लेते हैं, जिन्हे प्रेम प्रेमियों की आत्मा में उत्पन्न करता है। प्रेम वासना है, किन्तु, यह वासना आत्मा में विलक्षण उमग, अप्रतिम प्रसार और अद्भुत उत्तेजना जाप्रत करती है। प्लेटो की यह्‌ उक्ति ठीक है कि प्रेम एक प्रकार के आनन्दोन्माद का माध्यम होता है, प्रेम उम्त लोक की ओर उडने की प्रेरणा देता है, जो अतीन्द्रिय सुपमाओ का लोक है 1 प्लेटो ने जिस आनतन्दोन्माद की ओर संकेत किया है, उसकी अनुभूति सबको होती है, उन्हे भी जो सुसंस्कृत गौर सुरुचिसम्पन्न हैं, और उन्हें भी जो भौंडे और गेंवार ই) কিন্তু, শী আব गेंवार लोग इस स्फुरण को ठीक से नहीं पहचान पाते, यद्यपि, मनुभव उन्हें भी होता है कि आनन्द की यह्‌ किरण किसी अग्रलोक से आ रही है। ऐसा दीखता है कि प्रेम और कला में निकट का सम्बन्ध होगा। इसके कई प्रमाण दिये जा सकते हैं। सवसे वड़ी बात तो यह है कि प्रेम का भानन्द बहुत कुछ कला के आनन्द के समान होता है ओर आदमी चाहे कितना भी अवलात्मक क्यो न हो, उसे जीवन मे एक बार इस आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है। प्रेम से कई प्रकार की चिनगारियाँ छिटकती हैं। इनमे से सबसे अधिक तेज वाली वे होती हैं, जिनसे कला को प्रेरणा मिलती है। इसीलिए, कलाकार नारी रूप की ओर सहज ही खिच जाता है। पण्डित, मूर्ख, धनी और निर्धत--प्रेम, प्राय सभी प्रकार के लोग करते हैं। किन्तु, प्रणय-भावता की जैसी अनुकूलता योदाओं और कलाकारों में है, वैसी और लोगों से नहीं। यह शायद इसलिए कि योद्धा मे बलिदान के आवेग अधिक होते हैं और कलाकार उन आध्यात्मिक किरणों को कुछ अधिक समझ सकता है, जो नारियो के सौंदर्य से निःमृत होती हैं 1 प्रेम की सहज भूमि उस हृदय को मानना चाहिए, जिसमे अतृप्त प्रवृत्तियों की भरमार है और जो यह अनुभव करता है कि वह उपेक्षित, रीता और असतुष्ट है। कलाकारों में इच्छाएँ ओर प्रवृत्तियाँ अमच्य होती हैं और वे सदैव एक प्रकार की तूपा से चचल, एक प्रकार की रिक्तना से आात्रान्त रहते हैं। इसीलिए, सौन्दर्य को देखते ही कलाकार के हृदय मे हलचल-सी मचने लगती है, जो प्रेम और कला, दोनों को पहली पहचान है। जिसके भीदर प्रवृत्तियाँ कम हैं और जो हैं भी वे सतृप्त हैं, वह व्यनिति प्रेम, प्रेम एक है वा दो ? 5: १६




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