कल्पना के आंसू | Kalpana Ke Aansu

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Kalpana Ke Aansu by श्री राम शर्मा - Shri Ram Sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

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जन्म:-

20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)

मृत्यु :-

2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत

अन्य नाम :-

श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी

आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |

गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत

पत्नी :- भगवती देवी शर्मा

श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३) नहीं, नहीं, ऐसा न कह, कल्पना | रात ही तो आया । आज जरूर तेरी ओर जाता |! कल्पना ने कुछ कहना चाहा कि तभी सिर के ऊपर खड़ा आसमान आर अधिक काला हो गया | बादल गरजने लगे | आतुर बनकर सुधीर बोल्ा--में घास बाँध लू | आज पानी बरसेगा | प्रास न ले गया तो गाय को चारा भी न मिलेगा | कल्पना बेली- सुधीर, तू पढ़ता भी है और घर का काम भी करता है | घास खोदता है |? घास इकटुटी करते हुए सुधीर ने बात सुन ली, वह मुसकरा दिया | बह कहना चादता था कि दुनिया के सभी गरीबों को ऐसे ही चलना पडता है, परन्तु उसने इतना कह्पना से नहीं कहा । आसमान से बूँदें पड़ने लगीं शोर उसने जहदी से घास को इकट्ठा कर लिया | उस काम में कल्पना ने भी योग दिया | जब वह चादर में घास बाँध चुका ओर उसे सिर पर उठा कर चला, तो तभी, रास्ते में चलते हुए उसने कल्पना को सुनाया, एक दिन स्कूल के मास्टर जी कहते थ कि धनर्पात बनना इन्सान के लिये श्रच्छा भी है और घुस भी] वह्‌ बौला- 'धनपति आदमी नौंकरों पर आश्रित रहता है | स्वयं कुछ नहीं करता । वह शरीर की स्वाभाविक मांग को मार देता है। पर निर्धन कहां से नौकर रखे | वह स्वय॑ शरीर से भहनव करवा है | बलिष्ठ रहता है |? सुधीर ने मुसकराया-- तेरे घर तो নান हैं न, मालदार बाप की बेटी है तू | इसी से ऐसा कहती है !' किन्तु कल्पना के লন में उस समय दूसरी बात उठ रही थी | जैसे ग्रासमान में छाये हुये अ्न्धकार की तरह, उसके मन पर भी श्रन्धेरे क कोहरा छा गया था। इसलिये वह बरबस उदास बन गयी | चुट तेज पड़ने लगीं, तो बह भी अपने पेर जल्दी-जल्दी उठाने लगी। चाहती थी जल्दी घर पहुँच जाये | किन्तु उस दिन जैसे उन बादलों को धरसणा था । जल्दी ही वे बूंदें बढ़ी वध में परिशित हो गयीं। सुधीर श्रीर कल्पना को बहीं जंगल में एक खाली पढ़े भोपड़े मे एक जाया पड़ा । देखते-देखते




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