समाज शास्त्र के मूल तत्त्व | Samaj Sastra Ke Mul Tatwa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राथमिक परिभाषाएं १५ जासकता । 'समाज-शास्त्र' की परीक्षण-दाला तो रोज-मर्राका संसार है । ये सामाजिक-सम्बन्च जो देखें “नहीं जासकते, छूये नहीं जासकते, नापे-तोले नहीं जासकते, श्रययार्थ नहीं हें, यथायें हें । इन सम्बन्धोंकेलिये--ईर्ष्या, देप, मित्रता, प्रेम--इन्हींकेलिये हम जीते हूं, मरते हैं--इन्हींकेलिये हमारा जीवन है। ईर्पा-देप, तरह 'समाज', समुदाय, समिति, “सिंस्था'--ये भी न पकड़े जासकते हूं, न परीक्षा-नलीमें डाले जासकते हें; परन्तु मनुष्यके जीवनमें इतने ययार्थ हैं; इतने सत्य हूं, जितने यथार्थ या जितनी सत्प कोई भी चस्तु होसकती हैं । यह दूसरा कारण है जिससे यह श्रावश्यक होजाता हैँ कि के इन मूल-तत्वोंको श्रगर भौतिक-विज्ञानोंके तत्वोंकीतरह नापा-तोला नहीं जासकता; तो कम-से-कम इतने स्पष्ट तौरपर समझ लिया जाय जिससे इनके विपयमें किसीप्रकारकी भ्ान्ति न रहे । इसलिये हम यहां इन पारिभाषिक दाब्दोंका विवेचन करेंगे । १. समाज (500एाछप४ ) समाज शब्द का कया थे है ?-- जिन दाव्दोंकी हमने व्याख्या करनी हैं उनमेंसे सबसे पहला झाब्द 'समाज' है । 'समाज' से हमारा क्या श्रभिप्राय हैं ? 'पुरिस्टोटलने कहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैँ। यह सामाजिक-प्राणी, श्रर्यात्‌ मनुष्य, श्ववतकके श्रपने बनाया या वुरा बनाया, परन्तु ऐसा संगठन बनाया जिसमें हमें किन्हीं वातोंकी ्राज़्ादी हैं, किन्हीं वातोंकी वन्दिश हैं, कुछ हमारे कर्तव्य समझे जाते हूं, कुछ हमारे अधिकार समझे जाते हैं, कुछमें हम स्वतंत्र हैं, कुछमें परतन्त्र हैं। इस संगठन में हम कंसे रहें, कंसे न रहें; कैसे दूसरोंकेसाथ वर्तें, कैसे न वर्ते--इन सब वातोंकी व्यवस्था बनी हुई हु 9 इस व्यवस्थामें समय-समयपर परिवर्तन भी होता रहता किसी वातको झ्रनुभवसे दुरा समझा जाता हैँ, तो उसे छोड़ दिया जाता है, श्रच्छी बातोंको ले लिया जाता हु--इसप्रकार हम एक-टूसरेकेसाय घरतते जाते हैं, एकप्रकारके व्यवहारको जन्म देते हूं, वह ठीक नहीं जंचता तो दूसरे प्रकारके व्यवहारकी रचना कर डालते हे--यह सारा सिलसिला, यह एक-दूसरेकेसाय जो व्यवहारका “सम्बन्ध” ( हैं; जो परिस्थितियोंके श्रनुसार सदा बदलता चला जारहा है; एक-सा नहीं .वना रहता, उसीको इस दास्त्रमें समाज (800६५) कहा जाता है । .




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