विजय - पथ | Vijay Path

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) असचता को अहण कर ही परमात्मा के राज्य को हम प सकते हे । कोर शाब्दिक जमाखर्च और प्रार्थना का ढोग रचकर हम ॒भ“रामरीज्यः की स्थापना नदी कर सकते ! श्रन्त मे वह कहता हे---““यदि आगे बढना मौत के मुँह में जाना है तो पीछे लौट कर 'पालने” को अपनाओ | यही मेरा सन्देश है ।?” दूसरे भाषण के अन्तर्गत हमे स्थापत्य-कला के निर्माण एवं उसके विकास पर सुन्दर विवेचन मिलेगा । उसका कथन हे--“सम्पूर्ण भव्य स्थापत्य-कला राष्ट्रीय जीवन और चरित्र की चोतक है। सोन्दय-प्रेम एवं राष्रीय रचि की चिरन्तन चेतनता ही उसके निर्माण का श्राधार है ° समाज के कल्याण को दृष्टि में रखकर ही कला का निर्माण होना चाहिए । दूसरे शब्दो में कला के निर्माण में 'सुरुचिः को छोडकर, जो “एक पूर्ण नेतिक शुण है? हस यदि आगे बढेंगे तो यह सौन्दर्य--पूजा हमारे लिए धातक सिद्ध हुए बिना नही रह सकती । समाज के कल्याण के लिए कला, जीवन और धर्म एथक्‌ नही किये जा सकते । ये तीनो मिलकर ही उसे उन्नत बनाते है। वह इब्तापूर्वक प्रमाणित करता हे 'कि “प्रत्येक राष्ट्र के गुणावगुण सदा उसकी कला में अज्लित रहते है 1: उसके लिए “अ्रत्येक राष्ट्रीय महान स्थापत्य-कला, महान्‌ राष्ट-धमं का परिणाम एवं उसकी व्याख्या दहै 1 एक स्थल पर वह कहता है-: “उसे आप बिखरी हुईं कमी नहीं पा सकते। चाहे तो वह आपको अविल्छिन्न मिलेगी अथवा विल्कुल अस्तित्वहीच । न तो वह धुरोहितो के गिरोह का एुकाधिकार है, न ध्मान्धता की ज्याख्या है और न पूर्व- कालीन पुरोहिताधिपत्य का सांकेतिक लेखा ही है। वह तो इ॒ढ और सम-भावना-प्रेरित जनता की जीवित भाषा है--परस पिता परमात्मा के अटल नियमा में सावेभोस श्रद्धा का सौन्दर्यं हे 1*




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