श्रीराम | Shri Ram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विश्वासित्-वसिष्ठ-संधवं १६ चारो पुत्रो के गुण, कार्य-कुशलता, प्रीति तथा तेज दिन-प्रतिदिन बढने नगे । इनको पाकर राजा दशरश देवो से परिवृत स्वयभू ब्रह्मा की तरह मानदपूर्वक रहने लगे 1 एक दिन राजा दशरथ अपने सचिवो के साय राजकुमार के विवाहो की चर्चा कर रहे थे कि सहसा द्वारपाल अदर साये । वह घबराये हुए दिखाई दिये । उन्होने सूचना दी, “महामुनि विश्वामित्र महाराज के दशंन के लिए द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं!” ऋषि विश्वामिद्व के नाम लेने मात से ही लोग उस समय डर जाया करते थे। सुप्रसिद्ध प्रभावशाली महामुनि एकाएक इस प्रकार मिलने आये हैं, यह सुनकर राजा ने तत्काल आसन से उतरकर स्वय आगे जाकर मुनि का शास्तोचित विधि तते सत्कार किया। विश्वामित्रे पहले एक क्षत्रिय-वशज राजा ये 1 अपने तपोबल से वाद में ऋषि बने थे । बडी-दडी कठिताइयो का सामना करने बाद ही उन्हें अपने यत्न में मफलता प्राप्त हुई । एक बार तिशकु शाप से पीडित था। उसके ऊपर विश्वामित्र को दया आई । उन्होने जलग से सृष्टि की रचना करने की ठान ली ) एक नई दुनिया तथा अन्य ग्रह-मडल रचने का उन्होंने निश्वय क्या और अपने तपोवल से आकाश के दक्षिण की ओर बुछ तारागणो को स्थापित भी कर दिया। जब देवो ने उनसे यह काम छोड देने की प्रायना की तो यह माद गए और अपनी नवीन सृप्टि-रचना का कार्य रोक लिया। ये बातें रामायण थी घटनाओं से पहले की हैं । ऋषि-पद पाने से पहले विश्वामित्न राजा कौशिक कहलाते थे। एक बार यह अपनी सेनाओ के साथ पयंटन बरते हुए वसिप्ठ ऋषि के आश्रम मे पहुचे | ऋषि वो प्रणाम किया। ऋषि ने भी विश्वामित्त का यथोचित सरकार क्या। कुशल-सम्ाचार वे बाद पि वमिष्ठने विश्वामित्र से कहा, राजन्‌, आप अपनी सेता ओर परिवारवालो वे साथ मेरे आश्रम मे भोजन बरने बे तिए টু 1 मैं आप सबका समुचित सत्कार बरना चाहता हू 1” ,विप्वामिद्रने वरिष्ठे कटा, “गूनिदर, मपवे इन दचना एव अध्यंजल से जो सत्कार मुझे प्राप्त हुआ है, उससे ही में अयत सतुष्ट ছু मैं आपरा बृतज्ञ हू। आप और मष्ट न करें। बस, हमे यहां से जाने के




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