मेरी जीवन गाथा भाग - २ | Meri Jeevangatha Bhag - 2

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Meri Jeevangatha Bhag - 2  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुरार से आगरा स॒सत्यविद्यातपसा प्रणायक समग्रधीरुग्रकुलाम्बराशुमान्‌ | मया सदा पाश््वज्िनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदष्टिविभ्रमः ॥ इसी म्बाज्ञियरसे भद्रक जी का मन्द्र है) मन्दिरमे प्राचीन शास्त्र भण्डार है परन्तु जो अधिकारी भट्टारक जी का शिप्य है बह किसीको पुस्तक नहीं दिखाता तथा मनमानी गाली देता है। इसका मूल कारण साक्षर नहीं होना है। पासमे जो क द्रव्य है उसीसे निर्वाह करता है। अब जेन-जनता भी साक्षर-- विवेकबती हो गई है। वह अब अनक्षखेपियोंका आदर नहीं करती । हमने वहुत अयास किया परन्तु अन्तमे निराश आना पड़ा । हृदयसें कुछ ठुःख भी हुआ परन्तु सनमें यह विचार आने से वह दूर हो गया कि संसारमे मनुध्योंकी प्रवृत्ति स्वेच्छानुसार होती है और वे अन्यकी अपने रूप परिणमाया चाहते हैं जब कि वे परिणमते नदीं । इस दशमे महा दुः खके पात्र होते है । मनुष्य यदि यह्‌ मानना छोड़ देवे कि पदार्थोका परिणिमन हम अपने अनुकूल कर सकते हैं तो दुःखी होनेकी कुछ भी बात न रहे ! अस्तु । अगहन वदी ८ संवत्‌ २००५ को एक वजे ग्वालियरसे चलकर ४ मील पर आंगले साहबकी कोठीसे ठहर गये । कोठी राजमदलके समान जान पड़ती है । यँ धमेध्यानके योग्य निर्जन स्थान बहुत हैं । जल यहाँ का अत्यन्त सघुर हे, वायु स्वच्छ दे तथा वाह्ममें तरस जीरवोकी सख्या विपुल्न नहीं है। मकानमें ऋतु के अनुकूल জন सुविधा है । जब वी होगी तव उसका स्वरूप अति निर्मेल होगा




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