देव - दर्शन | Dev Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) वर घामिनि वाम चढ़ी बरसे, मुसकानि सुधा घनसार घनी ; सखियानि के आनन-इन्दनु ते अ खियानि की वन्दनिवार तनी केसा सुन्दर ओर स्वाभाविक चित्र है। सीता की बिदा हो रही है। अपनी अपनी अटारियों पर खड़ी हुई मिथिला की सन्दरि्यां वरात की विदा देख रही है। वनिताए समान आकार की हैं। उनके मुख-मयझ्लों से नेत्र-इन्दीवरों की बन्दनवार सी बँधी मालूम होती है। महाकवि कालिदास ने भी इस भाव पर रघुवंश मे लिखा हैः-- अथ पथि गमयित्वा च्लृप्ररम्ये'पका्ये कतिचिदवनिपालः शवरः सवेकल्पः । पुरमविशदयेध्यां मेथिलीदशंनानाम्‌ कुबलयितगवान्ञां लोचनेरंगनानाम्‌ ॥ यदि कालिदास के श्लोक आर देवके इन्द के भाव की तुलना की जाय ता विदित होगा कि देव की रचना में जैसा सौन्दर्य है, वैसा कालिदास की कृति मे नहीं है । इसी प्रकार रामचन्द्र के वनकासावधि समाप्त करके अयोध्या में पुनरागसन के समय कोशल्या का वन देव ने किया है। कहना न होगा कि देव को जगज्जननी मिथिलानन्दिनी के प्रति कितनी श्रद्धा थी, यद्यपि वास्तव मे हित हरिवश सम्प्रदाय के शिष्य होने के कारण वे जजाधीश श्रीकृष्णचन्द्र आन्दकन्द्‌ एव वृषभानुनन्दिनी के उपासक थे--




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