संगीत शास्त्र | Sangiit Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वास्नावतरण दि अन्य परम्पराओं में याष्टिक दुर्गा परम्पराएँ ही मुख्य हैं । याष्टिक दुर्गा परम्पराओं का अनुसरण करके संगीत रत्नाकर में शा जूंदेव ने रागोत्पत्ति और रागविवरण दिये हैं। आज्जनेय मत का अनुकरण चतुरदामोदर कृत संगीत दर्पण १६०० ई० में है । संगीत परम्पराओं के प्रवर्तकों का नाम संगीत रत्नाकर में यों दिया गया है-- सदाशिव शिवा ब्रह्मा भरत कश्यपो मुनि । याष्टिकों दुर्गा शक्ति शार्दूलकोहलौ ।। विशाखिलों दत्तिलश्च । वायुविद्वावसू रम्भार्ड्जुनों नारदतुम्बुरू ॥ मातुगुप्तो रावणो नन्दिकेश्वर । स्वातिगंणो बिन्दुराज राहुल ॥। रुद्रदो नान्यभूपालो भोजभूवल्लभस्तथा । परमर्दी च. सोमेशो जगदेकमहीपति ।। व्यख्यातारों भारतीये लोल्लटोद्भटशंकुका । भट्टाभिनवगुप्तरच श्रीमत्कीतिधर पर ॥। अन्ये च बहव पुर्वे ये संगीतविशारदा । इनके साथ द्रविड़ तमिल देश में एक अति प्राचीन पद्धति उत्पन्न हुई है। इस परम्परा के प्रवतक परमदिव स्कन्द और अगस्त्य हें । इस पद्धति में कई ग्रन्थ भी लिखे गये थे । पर अब सब ग्रन्थ नष्ट हो चुके हें। उन ग्रस्थों से कुछ उद्धरण पिछले दिनों के काव्यों और निध्रण्टुओं में उपलभ्य हूं। इस पद्धति में रागों का नाम प्ण और तिरम्‌ है। इनके लक्ष्य अब भी देवार नामक स्तोत्र में वर्तमान हैं । सन्‌ १२०० ई० में सब पद्धतियों का मन्थन करके शाज़ंदेव ने संगीत रत्नाकर नामक सु्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा इसकी छः टीकाएं संस्कृत मे थीं । पर अब दो ही प्राप्य हूं। सन्‌ १७०० ई० में लिखी हुई सेतु नाम की एक ब्रजभाषा टीका तंजौर सरस्वती महल पुस्तकालय में है । टीकाकार का नाम है गंगाराम । भावभट्ट के द्वारा लिखी हुई आन्घ्रभाषा की टीका भी है । इससे इस ग्रन्थ का महत्व जाना जा सकता है । यही समूचे भारत के संगीत संप्रदाय में एकरूपता लानेवाला अन्तिम है । १. कुम्भक्णे केदाव कल्लिनाथ सिहभूपाल हंसभूपाल--और एक टोकाकार का नाम नहीं मालूम है ।




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