गोस्वामी तुलसीदास | Goswami Tulsidas

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Goswami Tulsidas by रामचंद्र शुक्ल - Ramchandra Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र गास्वामी तुलसीदास इस भावना का लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती । भक्त के लिये भक्ति का आनंद ही उसका फल है। वह शक्ति सौंदर्य श्रीर शील के अनंत समुद्र के तट पर खड़ा हाकर लहरें लोमे में ही जीवन का परम फल सानता हैं तुलसों इसी प्रकार के भक्त थे । कहते है कि वे एक बार चूंदावन गए थे | वहाँ किसी छृष्णापासक ने उन्हें छेड़कर कहा-- पके राम तो वारह कला के ही अवतार हैं। अप श्रीकृष्ण की भक्ति क्‍यों नहों करते जा सालह कला के अवतार हैं ? गास्वामीजी बड़े मालेपन के साथ बेाले-- हमारे राम अवतार भी हैं यह हमें अआज सालूम हुआ । राम विष के अवतार हैं इससे उत्तम फल या उत्तम गति दें सकते हैं बुद्धि के इस निणेय पर तुलसी राम से भक्ति करने तंगे हें यह बात नहीं है । राम तुलसी को अच्छे लगते हैं. उनके प्रेम का यदि कोई कारण है ते यही है। इसी भाव को उन्होंने इस दोहे में व्यंजित किया है-- जा जगदीब ता श्रति भला जो मद्दीस तो भाग । तुलसी चाहत जनम भरि राम-चरन-झनुराग ॥ तुन्सी का राम का ले क-रजक रूप वैसा ही प्रिय लगता है जेसा चातक को सेव का लाक-सुखदायी रूप । अब तक जो कुछ कहा गया है उससे यह सिद्ध है कि शुद्ध भारतीय भक्ति-मार्ग का रददस्यवाद से काई संबंध नहीं । तुलसी पूर्ण रूप में इसी भारतीय भक्ति-मार्ग के अनुयायी थे अत उनकी रचना का रहस्यवाद कहना हिंदुस्तान को अरब या विल्ञायत कहना है। कृष्णभक्ति-शाखा का स्वरूप आगे चल्लकर अवश्य ऐसा हुआ जिसमें कहीं कहीं रहस्यबाद की शुंजाइश हुई । अपने मूल रूप में भागवत संप्रदाय भी विशुद्ध रहा । श्रीकृष्ण का लाक- रक्षक झार लोक-रंजक रूप गीता में झार भागवत पुराण में स्फुरित है। पर धोरे धीरे वद्द स्वरूप आवृत होता गया श्रौर प्रेम का आलें-




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