पर आँखें नहीं भरीं | Par Ankhe Nahi Bhari

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Par Ankhe Nahi Bhari by शिवमंगल सिंह - Shaivmangal Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर आंखें नहीं भरी ५, - पत्तिगा विचारा जला जा रहा ह कि दीपक का दामन छुला जा रहा है कि जलते हैं यों ही सनेही बिचारे खुदी को बिसारे | हिलीं यों लताएँ कि ढाढ़स बँधाएँ कि असमय सुमन-दल चुना जा रहा है नया ताना-बाना बुना जा रहा है मधुप गुनगुनाते रहे मन को मारे कली के सहारे। विमन मन मनाएँ कि कविता बनाए कि अंबर चृनौती मुभे दे रहा है कि सागर मनौती लिये ले रहा है, तनिक देर में तू कहाँ, में कहाँ रे ? रहेगा जहाँ रे ! ग्यारह




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