रचना का सच | Rachana Ka Sach

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भावना के बिता भी जीवन-मात्र के लिए एक किस्म के एकत्व की, और इसलिए सभी के लिए करुणा और सहानुभूति की अनुभूति हो सकती है और बह भी एक किस्म की आध्यात्मिकता है-चाहें तो उसे धर्म-निरपेक्ष आध्या- त्मिकता कह सकते हैं। यह तय है कि इस आध्यात्मिकता के विना न दूसरों मे स्वयं को देखा जा सकता है और न अपने में दूसरो को पहचाना जा सकता है। इसके बिना अपने से ऊपर उठकर दूसरे के कल्याण की, समध्टि के कल्याण की भावना अंकुरित तक भी नहीं हो सकती । महान क्रान्तियी भी क्या इस प्रकार की धर्म-निरपेक्ष आध्यात्मिकता के बिना सम्भव हो सकती है ? यह आध्यात्मिकता प्रकारान्तर से मानवीय अनुभूति की गहराई, ब्यापकता मौर पारदशिता ही है भयोकिं इन तीनों गुणौ के उत्फपं के विना इसकी कल्पना भी नही की जा सकती । निश्चय ही इन गुणों के उत्कर्य की साधना का एक श्रष्ठ रूप साहित्य है। सन्‍्तो और कलाकारो को इसी द॒प्टि से कई बार एक ही कोटि में रखा जा सकता है और इसलिए आइचये नहीं होना चाहिए कि सात्र नै ज्यांजेने को (जिनके व्यक्तिगत जीवने को भी शायद किसी भी प्रचित नैति मापदण्ड से वांछनीय नही माना जा सकता था) सन्त जेने का दर्जा दिया है । रामायण, महाभारत, प्राचीन यूनानी नाटकों या शेव्सपियर, टॉलस्टॉय और दॉस्तोएव्टकी जमे छेखकों की कृतियों को पढते हुए कई बार ऐसी पारदर्शिता की अनुभूति होती है और तेव किसी के प्रति घृणा शेप नही रहती-एक व्यापक करुणा से भन भर आता है। इस करुणा को दया के अर्थ में नही जीवन मात्र के वोध की क्ृतज्ञता के एक भाव के रूप में समझा जाना चाहिए। इस पारदर्शिता को अगित करने के लिए पाठक को भी कख न कुठ शरम तो करना ही होता है-यद्यपि श्रेष्ठ साहित्य को नियमित पढ़ते रहना और उस पर चिन्तन कस्ते रहता अपने-आप में इसी दिशा की ओर छे जाने यारी एणः साधना ही है। छेकिन पाठक मे इस गुण का उत्क्पं तभी सम्भव है जय साहित्यकार ने स्वयं इस स्तर को अजित कर लिया हो । तब यह विपार फरने की बात हो जाती है कि क्या आज का लेखकः इस ओर रयेष्ट ह ? यथा पद्‌ इस तरह की निम्संगता अर्जित करने की ओर सजग है जो फिरी भी अगुभव की, चरित्र के प्रति अच्छे और बुरे की उसकी पहचान को बनाये रणते हुए भी इस तरह की शुमाकाक्षा का उत्कर्प कर सके ? बया यहू अपने भगुभगन्‍्यात् को इतना समर्थ बनाने के लिए प्रयासरत है कि असने गन पे राभी पूर्ण पी साहित्य : पारदर्शिता भी एाभणा 15




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