साम्ययोग का समाज - दर्शन | Samyayog Ka Samaj Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अभिधेयं परम साम्यम्‌ 13 कोशिश की गयी, उससे हमें एक दिशा मिल गयी । फिर भी उसमें परिपृर्णता नहीं होती, और शायद कभी होगी भी नहीं । मैं कौन हूं -इस प्रश्न के जवाब में हमारे पूर्वजों ने कह दिया - में ब्रह्म हुं'। उसमें गाय-गधे, सब आ गये। यह जो व्यापक अनुभूति है, उसको बेदांत' कहते हैं । और, में ब्रह्म हूं तो मेरी कोशिश होती चाहिए कि सबके साथ में समान व्यवहार करूं, इसको “अहिसा' कहते हैं । समान व्यवहार की तो आखिर कोशिश ही होगी; क्योंकि देह में हूं तो समान व्यवहार संभव नहीं होगा, देह विग्रह होगा। परंतु भावना से कोशिश होगी कि समान व्यवहार हो । | अहिसा एक आचरण-पद्धति है और वेदांत एक चितन-पद्धति है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। आचरण की बुनियाद वेदांत और वेदांत की बुनियाद अहिसा होगी । यह्‌ कोशिश हमारे सामाजिक जीवन में भी चलेगी । गांववाले सब एक ह, इसकी कोशिश चलेगी । जैसे मेरी घडी का मैं साक्षी हूं वैसे ही मेरे हाथ, कान, नाक, बुद्धि, मन का भी साक्षी हूं । उनसे अलग हो कर मैं इन्हें देख सकता हूं । इसी प्रक्रिया से मनुष्य वेदांत तक पहुंच सकेगा और पायेगा कि मैं ब्रह्म हूं । समान व्यवहार यानी जो सबसे अधिक दु:खी है, सेव्य है उसकी ओर प्रथम ध्यान दे कर सेवा करना । यह अहिंसा का रहस्य है । इस अहिसा तत्त्व को अब हमें सामाजिक जीवन में प्रस्थापित करना है। आज समाज में अहिसा नहीं है, सो बात नहीं, परंतु वह गौण रूप में है । लडाई में एक ओर हिंसा चलती है और दूसरी ओर रेडक्रास सोसायटी के स्वरूप में थोडा करुणा-कार्य भी ¶




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