आनन्द प्रवचन भाग - १० | Anand Pravachan [ Vol - 10]

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Anand Pravachan [ Vol - 10] by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूलस्नोत ্ান্িনা दंडपरा हवति, विजञ्जाहरा मतपरा हवति । मुक्ला नरा कोवपरा हवंति, सुसाहुणो तत्तपरा हवति ।\८\ दुष्ट-अधिप तो दण्ड-परायण मन्त्र-परायण विद्याधर जन । क्रोध-परायण मूखं मनुज है तत्तव-परायण साधु शिवकर ॥८॥ सोहा भवे उग्गतवस्स खंती, , समाहिजोगो জলজ सोहा । नाणं सृज्ज्ञाणं चरणस्त सोहा, सीसस्स सोहा विणए पवित्ति ॥६॥ तप की शोभा विमल-क्षमा मे, समाधियोग है सम की शोभा । जलान-घ्यान से चारित्र शोभता, विनय बढाता शिष्य की शोभा ॥६॥। अभूसणो सोहइ बंभयारी, अकिचणो सोहइ दिक्‍्खधारी । बुद्धिजुमो सोहइ रायमंती लज्जाजुमा सोहइ एकपत्ति \\१०॥ ब्रह्मचारी विभूषा रहित शोभता शोभे अकिचन साघु सदा| युद्धि राजमन्त्री की सोभा लजवती शोभती पतित्रता ।॥१०॥ अप्पा अरो हो अणवट्ठियस्स, अप्पा जसो सीलमओ नरस्स ।*“ स्वय शत्रु अनवस्थित आत्मा शीलवान অহা पाता है॥ [11]




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