वीतरागता (1979) Ac 5426 | Veetragta (1979) Ac 5426

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Veetragta (1979) Ac 5426 by देवेन्द्रकुमार शास्त्री - Devendrakumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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और मभमंत्व। वह जिन-जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उन-उन के प्रति अधिकारः की बुद्धि स्थापित कर उनका मालिक बन जाता है। यह जानते हुए भी कि पर-वस्तु पराई है, पर इस समय हमारे अधिकार में है, इसलिये किसी के লিলা कहै हए भौ बह उस वस्तु का स्वामी अपने आप को मान लेता है। फिर, ऐसा सम्बन्ध बना लेता है कि उससे अपने आप को अभिन्न मानने लयता है। इस एकत्व बुद्धि के कारण ही उस पर-वस्तु को अपने आप से अलग नहीं मानता है। उसके सारे प्रयत्न पर-बस्तु को भोगने के हैं, उससे वह इन्द्रिय-सुख प्राप्त करना चाहता है। अत: पर-पदार्थों में उसकी ऐसी ममता हो जाती है कि क्षण भर के लिए भी उन्तके सम्पर्क से नहीं हटना चाहता। जब तक पर-वस्तुओं की ओर उसकी दृष्टि रहती है, तब तक वह स्वात्मोन्म्‌ख नही होता । अपमी शुद्धात्मा को ही लक्ष्य मे लेना, उसकी मोर ही ्षुकना सम्यग्दशेन की प्रथम भूमिका है। इस भूमिका मे शुद्धात्मा की रुचि व उपादेयत। प्रकट हौ जाती है । बारम्बार शुद्धात्मा की महिमा आने से तथा क्वचित्‌ आत्म-दशेन की क्षलक मिलने से यह निश्चय हो जाता है कि निज शुद्धात्मा ही उपादेय है । चतुथं गुणस्थानवर्ती जीव के धमं ध्यान में किचित्‌ आत्मानुभव अवश्य होता है । यद्यपि स्व-संवेदनजन्य वृद्धिगत निविकल्प आत्मानुभूति शुद्धोपयोग कौ दशा मे उत्तम मूनियों के होती है, किन्तु शुभोपयोगियौ के भी किसी काल मे शुद्धोपयोग की भावना देखी जाती है) श्रावको के भी मामायिकादि काल मे शुद्ध भावना लक्षित होती है। तथापि जिनके प्रचर रूप से शुभोपयोग वतं रहा है, उनके किसी काल में शुद्धोपयोग की भी भावना हो, तो बे शुभोपयोगी ही कह लाते है; जैसे कि शुद्धोपपोगी किसी काल में शुभोपयोग रूप से भी वतेते है, पर वे शुद्धोपपोगी ही कहे जाते हैं। वास्तव में शुद्धोपपोग रूप निश्चय रत्नत्नय की भावना से उत्पन्न परम आन्ल्हाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन वीतराग चारित्र के बिना नहीं होता। इसलिये आत्मा की उपलब्धि होता सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है, किन्तु शुद्धात्मा रूप समयसार को उपलब्ध होना ही संम्यग्दशेन का वास्त- विक स्वरूप है। वीतराग दशा मे ही निश्चय सम्यण्दशन का अविनाभावी सम्यग्ज्ञानं ओर निश्चय चारित्र पूणं रूप से लक्षित होता है। कहा भी है कि चौथे से ले कर छठे गुणस्थान तक स्थूल सराग सम्यर्दृष्टि होते हैं। उनकी पहचान प्रशम, संवेग आदि बाहरी लक्षणों से हो जाती है। किन्तु सातवें से दसवे गृणस्थान तक सूक्ष्म सराग सम्यर्दृष्टि होते है, उन्हें वीतराग सम्यरदृष्टि भी कहते है। उनकी पहचान किसी बाहरी लक्षण से नही हो सकती । अन्तरग लक्षण ही उनमे पाए जाते है। पूणे वीतराग सम्यण्दुष्टि बा रहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होते है । समस्त मोह का अभाव हो जाने से वे ही वास्तव में वीतराग चारित्र के धारक हैं। यह अवस्था तभी प्राप्त होती है, जब यह जीव आत्मनिष्ठ हो कर समस्त संकल्प-विकल्पों के जाल से मुक्त किसी भी विशेष का ख्याल न कर अपनी सत्ता मात्र का अवलोकन करता १५




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