नयाचक्र (1971) Ac 5043 | Nayachakra (1971) Ac 5043

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १३ उन्हीं सावोका स्यापन करता, अणुमात्र भो अन्य कल्पना न करना स्वाधित है । उसे ह मुख्य कथनत कहते हं । उसके शाभसे शरीर भादि परद्रव्यमे एकत्वभदानरूप धज्ञान भावनाका अभाव होकर भेदविज्ञान होता है वथा समस्त परदरव्योसि भिन्न अपने शुद चैतन्य स्वरूपका अनुमब होता है । तथा पराधित कथनको व्यव- हार कहते हैं । किचित्‌ मात्र कारण पाकर अन्यद्रभ्यके भावको अन्यद्रव्यमें आरोपित करता पराक्षित कहलाता हैं । पराश्चित कथनको उपचार कथन या गोण कथन कहते हैं । इसके जाननेसे शरोर आदिके साथ सम्बन्ध- रूप संसारदशाका जान होता है । उसका ज्ञान होनेसे धंसारके कारण आलव बन्धको त्याग कर मुक्तिके कारणं सवर और निर्जरामें प्रवृत्ति करता है । भज्ञानी इनको जने बिना ही शुदधोपयोगी होना चाहता है । भतः वहू व्यवहारकों छोड बैठता है और इस तरह पापाचरणमें पड़कर नरकादिमें दु.ख उठाता है। मतः व्यवहार कथनको भी जानना आवश्यक है | इस तरह दोनों नयोंका शञान होना आवश्यक है । सिद्धान्तमें तथा अध्यात्ममें प्रवेशके लिए नयज्ञान बहुत आवष्यक है, क्योकि दोनो नय दो आँखे हैं । ओर दोनो आँखोसे देखनेपर ही सर्वावक्ञोकन होता है। एक आँखसे देखनेपर फेवल एक देशका ही अवलोकन होता है। इसीसे देवसेनने तयचक्र ( गा० १० ) में कहा हैं--जो मयरूपी दृष्टिसे विहीन है उन्हे वस्तुक स्वरूपका भोध नही हो सकता । ओर वस्तुके स्वरूपको जाने बिना सम्यरदर्शन कैसे हो सकता है ? नयविषयक साहित्य मोतो जेन परम्परामें नयको चर्चा साधारणतया पायी ही जाती है । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें 'प्रमाणनसैरघिगसः सूत्रकी रचनाके पश्चात्‌ ही जेत परम्परामे प्रमाण और तथकी विशेष रूपसे चर्चाका अवतार हुआ है । तस्वार्थसुत्रमे नयोके केष सात मेद गिनये ह । उसमे द्रव्याथिक या पर्यायाधिक भेद नही है । हाँ, तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याग्रस्थ उम्रास्वातिभाष्य और सर्वार्थसिद्धिममें उनको चर्चा है तथा नय भौर उसके भेदोके लक्षण दिये हैं । आचार्य कुन्दकुन्दने द्रब्याथिक और पर्यायाथिक तथा निश्वय और व्यवहारनयसे वस्तुस्वरूपका विवेचन अवश्य किया है, किस्तु उसके स्वरूपके सम्बन्धमे विशेष कुछ नही फहा है । हाँ, , व्यवहारनयको मभूता्ं भर्‌ निक्चयनयको मूताथं अवश्य कह दै । ( देखो, समयसार गा० ११)। “ आवायं समन्तमद्रने अपने आप्तमीमांसा तथा स्वयंभूस्तोत्रमे यकौ चर्चा की है तथा मयके साथ उपनयका भी निर्देश किया है ( आ० मो० १०७ )। धथा सापेक्ष र्योको सम्यक्‌ मौर निरपेक्ष नयोष मिथ्या कहा है ( १०८ )। किन्तु नय और उपनयके भेदोकी चर्चा तही की है । आचार्य सिद्धसेनने अपने सन्मतिसूत्रमें नयोका क्रमबद्ध कथन किया हैं भौर द्रव्याधिक तथा पर्यायाथिकको मूढ नय बतलाकर शोषको उन्हीं दोवोका भेद बतलाया है तथा दोनो नयोंकी मर्यादा भी वतलायी है उनके भेर्दोका भी कथन किया है, किन्तु नैममनयको मान्य बही किया । हसोसे वे षड्नयवादी कहते है । उन्होंने कहा है--जितने,बचनके मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने धयवाद हैं उतने ही पर- समय हैं ( ३।४७ ) । विभिन्नदर्शनोंका नयोंमे समन्वय करते हुए कहा है--सांख्यदर्दान द्रव्यास्तिकका वक्तव्य है, बौद्धदर्शन परिशुद्ध पर्यायलयका विकल्प हैँ। यद्यपि वेशेषिकदर्शनमें दोनों नयोंसे प्ररूपणा है फिर भो वह मिथ्या है, क्‍योंकि दोनों तय परस्परमें निरपेक्ष हैं ( ३४८-४९ ) । इस तरह उन्होंने भो निरपेक्ष मयोको प्रिथ्या कहा है । सिद्धसेनके पश्चात्‌ जैन प्रमाणव्यवस्थाके व्यवस्थापक अकलंकदेवने लघीयस्त्रय प्रकरणमें नय प्रवेशके अन्तर्गत तथा सिद्धिविनिश्वयके अन्तर्गत अर्थशयसिद्धि और दाब्दनयसिद्धि नामक प्रकरणोंमें नयोंके सात भेदोंके साथ उसके आभासों नैगममामास आदिका विवेखन करते हुए इतरदर्शवोंका समावेश किया है ।




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