तत्व - चिंतामणि भाग 2 | Tatva Chinta Mani Bhag 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
640
श्रेणी :
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No Information available about श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मयुष्यका कर्तव्य ও
ताश होनेकी कोई आवश्यकता नहों | भगवानमे चित्त लगानेसे
भगवत्कृपासे मनुष्य सारी कठिनाइयोसे अनायास ही तर जाता है.
“मच्चित्तः सर्वेदुर्गाणि मगसादात्तरिष्यत्ति !! भगवानने और भी
कहा है---
देवी ह्येषा गुणमयी मम साया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
( गीता ७14४)
यह मेरी अछैकिक--अति अद्भुत त्रियुणमयी योगमाया बहुत
दुस्तर है, परन्तु जो पुरुप मेरी ही शरण हो जाते है वे इस
मायाको उद्ध्नन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे सहज ही तर जाते
हैं ! सब देशो और समस्त पदार्थोमे सदा-सर्वदा मगवान्का
चिन्तन करना और भगवानकी आज्ञाके अनुसार चलना ही
शरणागति समझा जाता है। इसीको ईश्वर॒की अनन्यभक्ति भी
कहते हैं । अतएव जिसका ईश्वरमे विश्वास हो, उसके लिये तो
ईश्वरका आश्रय ग्रहण करना ही परम कतंव्य है । जो भलीमॉति
ईश्वरके शरण हो जाता है, उससे ईश्वरके प्रतिकूछ यानी अशुभ
कर्म तो बन ही नहीं सकते । वह परम अमय पदको प्राप्त हो
जाता है, उसके अन्तरमे शोक-मोहका आत्यन्तिक अभाव रहता
है, उसको सदाके लिये अठल शान्ति प्राप्त हो जाती है और
उसके आनन्दका पार हयी नहीं रहता । उसकी इस अनिवेचनीय
स्थितिको उदाहरण, वाणी या संकेतके द्वारा समझा या समझाया
नहीं जा सकता | ऐसी स्थितिवाले पुरुष खय॑ ही जब उस स्थितिका
वर्णन नहीं कर सकते तब दूसरोकी तो बात ही क्या है ? मन-
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