तत्व - चिंतामणि भाग 2 | Tatva Chinta Mani Bhag 2

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Tatva Chinta Mani Bhag 2  by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मयुष्यका कर्तव्य ও ताश होनेकी कोई आवश्यकता नहों | भगवानमे चित्त लगानेसे भगवत्कृपासे मनुष्य सारी कठिनाइयोसे अनायास ही तर जाता है. “मच्चित्तः सर्वेदुर्गाणि मगसादात्तरिष्यत्ति !! भगवानने और भी कहा है--- देवी ह्येषा गुणमयी मम साया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ ( गीता ७14४) यह मेरी अछैकिक--अति अद्भुत त्रियुणमयी योगमाया बहुत दुस्तर है, परन्तु जो पुरुप मेरी ही शरण हो जाते है वे इस मायाको उद्ध्नन कर जाते हैं अर्थात्‌ संसारसे सहज ही तर जाते हैं ! सब देशो और समस्त पदार्थोमे सदा-सर्वदा मगवान्‌का चिन्तन करना और भगवानकी आज्ञाके अनुसार चलना ही शरणागति समझा जाता है। इसीको ईश्वर॒की अनन्यभक्ति भी कहते हैं । अतएव जिसका ईश्वरमे विश्वास हो, उसके लिये तो ईश्वरका आश्रय ग्रहण करना ही परम कतंव्य है । जो भलीमॉति ईश्वरके शरण हो जाता है, उससे ईश्वरके प्रतिकूछ यानी अशुभ कर्म तो बन ही नहीं सकते । वह परम अमय पदको प्राप्त हो जाता है, उसके अन्तरमे शोक-मोहका आत्यन्तिक अभाव रहता है, उसको सदाके लिये अठल शान्ति प्राप्त हो जाती है और उसके आनन्दका पार हयी नहीं रहता । उसकी इस अनिवेचनीय स्थितिको उदाहरण, वाणी या संकेतके द्वारा समझा या समझाया नहीं जा सकता | ऐसी स्थितिवाले पुरुष खय॑ ही जब उस स्थितिका वर्णन नहीं कर सकते तब दूसरोकी तो बात ही क्या है ? मन-




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