कबीर समग्र खण्ड 1 | Kabir Samgra Khand-1

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Kabir Samgra Khand-1 by कबीरदास - Kabirdas

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कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति: स्थान और आरम्भ भारती जनमानस पर सबसे अधिक प्रभाव “भक्ति का हैं। कम से कम पिछले दो हजार वर्षो से इस प्रभाव की निरन्तरता प्रमाणित है। तारीखे कठिनाई मे डाल देती है। *सनातन' की - कोई तारीख नहीं। कोई सन्‌ और सवत्‌ नहीं। सनातन अनत और अजन्मा है। खोजी भक्ति का आरम्भ वेदो से ही कहते है। जहाँ तक भारती साहित्य है वहाँ सर्वत्र ही भक्ति है। वेद, उपनिषद्‌, पुराण, काव्य, प्रबन्धमू, भाषा, बौद्ध, जैन, दक्षिण, उत्तर, पूर्व, पश्चिम सब जगह भक्ति है। यहाँ तक कि सूफियो के यहाँ भी। भक्ति ब्रह्म जैसी व्यापिनी है। गीता मे श्रीकृष्ण ने भक्तियोग को पुरातन कहा है। इसे उन्होने सर्वप्रथम सूर्य को बताया था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु को। मनु ने अपने पुत्र इश्वाकु को। इसी सूर्य कुल मे भगवान राम का जन्म हुआ था। महाभारत मे भक्ति नारद को श्वेतद्वीप मे भगवान से प्राप्त हुई थी। यह श्वेत्द्वीप बदरिका आश्रम के आस-पास है। हिमालय का श्वेत धवल यह स्थान कभी समुद्र से घिरा रहा होगा । आगे चलकर जिस भक्ति का विकास हुआ वह भी नारायणी या भागवत भक्ति है। किन्तु भक्ति का क्षेत्र विष्णु के अतिरिक्त भी है। शिव और विष्णु की भक्ति की दो धाराएँ प्राचीन है। लोकमान्य तिलक ने लिखा है-“भगवदूगीता (९ १४) एव शिवगीता (१२ ४) दोनो ग्रंथों मे कहा है कि भक्ति किसी की करी, पहुँचेगी वह एक ही परमेश्वर को । महाभारत के नारायणी धर्म मे इन दोनो देवताओ का अभेद यो बताया गया है कि नारायण और रुद्र एक ही है। जो रुद्र के भक्त है, वे नारायण के भक्त है और जो रुद्र के देषी है वे नारायण के भी द्वेषी है (म० भा०० शा० ३४१ २०-१६ और ३४२, १२९ देखो)? इतना ही नहीं शारदा, दुर्गा, सूर्य, ब्रह्मा आदि की भी भक्ति होती थी। आगे चलकर बोधिसत्व, बुद्ध, अर्डहत आदि की भक्ति होने लगी। सभी भक्तो ने प्राय सभी देवताओ की प्रार्थनाएँ की है। अवतारो की संख्या भी बढ़ती जा हृही है। आस्तिक बुद्धि का श्रद्धालु भक्त और भगवान्‌ मे भेद करने का साहस नहीं करता | झगड़े तो अश्रद्धालुओ के काम है। सभी देवों के प्रति पूज्य भाव के कारण ही समन्वय का विकास हुआ। वेद-विरोधी बुद्ध वेदधर्मियो के भगवान्‌ हो गए। जैनो के ऋषभदेव अवतारों मे शामिल कर लिए गये। आत्मा, परमात्मा और सत्ता के विरोधी पूज्य होते-होते स्वय भगवान की गए। सर्वोच्च सत्ता बन गए। भुक्ति-मुक्ति के दाता बन गए। इतिहास से अधिक पुराण बन गये। भारत का शायद ही कोई सम्प्रदाय, मतवाद और धारा हो जहाँ भक्ति का उदय नहीं हुआ। सनातन धारा ने विरोधियों को प्रभावित किया। विरोधियों ने सनातन के निर्माण मे अपना योग दिया। भारती मनीषा ने कब, कहाँ और किसको प्रभावित किया है, इसका लेखा कठिन है। सनातन की सभी धाराएँ अनत है। वे एक दूसरे के साथ चलती है। विरोधी बौद्ध और जैन धर्म वेद-धर्म से ही विकसित थे। उन्होने सुधार चाहा। एक पिता के विपुलर कुमार की स्थिति थी। पिता के गुण-दोष तो इनमे थे ही, उन्होने किया। उनसे प्रभावित भी हुए। इन न्होने अपने भाइयो को भी प्रभावित १... मीता-रहस्य-पृ० ३४३। १




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