भागवत अंक भाग -१३ | Bhagwat Angk Bhag-13
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33.09 MB
कुल पष्ठ :
451
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री महर्षि वेदव्यास - shree Maharshi Vedvyas
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)के भगवत्स्तुति % भंगवत्स्तात स्भ्ति में ैंट संतानपर तमीश्रराणां परम॑ महेश्ररं त॑ देवतानां परम॑ं. च. देबतमू । पतिं पतीनां परम॑ परस्ताद् विदाम देव आुवनेशमीड्यमू | दम उन प्रकाशखरूप स्तुति करने योग्य अछिलठोकपति भगवान्को जान गये हैं जो देश्वरोंकि भी परम महेश्वर हैं जो देवताओंके भी परमाराथ्य देव हैं जो खामियोंकें भी स्त्रामी हैं और जो मद्दानसे भी अति महान् हैं । हे न तस्य. कार्य करण च विद्यते न तत्समथाभ्यधिकशथ इृश्यते । परास्य चक्तिरविंविधव श्रूयते खाभाषिकी ज्ञांननलक्रिया च ॥। उन परमेश्वरका न तो कोई झारीर है न उनकी इच्द्रियाँ ही हैं । न तो कोई उनके समान है न. उनसे बढ़कर ही हैं । उनकी परमाशक्ति विविध प्रकारकी सुनी जांती है क्योंकि वे स्वाभाविक अथोत् अनादिसिद्ध शक्तियुक्त हैं । उन परमेश्वरकें ज्ञान और बलके अनुसार दी किया होती है। न तस्य कथ्चित् पतिरस्ति लीके न चेदिता नंव च तस्य लिज्ञ्म् । स कारण करणाधिपाधिपो न चास्य कश्रिज़निता न चाधिप ॥। उन परमेश्वरका इस संसारमें न तो कोई पति है न नियामक है और न कोई कारण छयवा भनुमापक ही है । त्रे-ख्वय ही सबके कारण हैं वे इन्द्रियोंके अधिष्ठातू देवताओंकि हे भी अधिष्ठाता हैं उनका न तो कोई उत्पादक है और न खामी ही है | 2 यस्तन्तु्र्म इव... तन्तुभि . प्रधानजे। . खभावता । देव . एक... खमाइणोत् स.. नो... दधाइल्ाप्ययमू ॥। #सरदरूददडरकरररकदशरडीा जिस प्रकार मकड़ी अपने ही शरीरमेंसे निकले हुए तन्तुओंसे अपने आपको वेष्टित है उसी प्रकार इन अद्वितीय परमात्माने अपनी ही प्रकृतिसे इस सषटिको उत्पन- कई -उसके द्वारा अपनेको आदत कर लिया | वे परमेशर हमारा उस पत्रझके साथ ही (/ एकीमाव सदान कर | श यो त्रह्माणं विद्धाति पव॑ यों बे वेदांश्र प्रहिणोति तस्मे । है त९ हद. देवमात्मवुद्धि्काशं सुमुझुवें शरणमहं . प्रप्ये | गए जो सर्गारम्भमें पहले ब्रह्माकी रचना करते हैं और फिर जो उन्हें वेदका ज्ञान कराते हैं मैं ण् मोक्षकी इन्छासे उन खम्रकाशखरूप परत्रझमकी शरण श्रदण करता हूँ । री ( श्वेताश्वतरोपनिषदू इ | ७-१० १८ ) ष् जन एनदनिनप-लणनवणय रत नर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...