ईसाई धर्म | Iisai Dharm

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Iisai Dharm by स्वामी सत्यभक्त

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(र१) सुराजिन बेतसैद। आदि नगरों में भी उन्हें सफलता नहीं मिली थी | इसलिये उनने सोचा कि शायद सूर और सैदा की तरफ प्रचार करने में छुंछ सफलता मिढेंगी | म. या को श्रचार में यह भी अनुभव हुआ कि जो. ढोग पढ़े लिखे हैं वे केवल -बकबाद करते हैं पर जो बिना पढ़े हैं. वे कुछ अधिक समझते हैं | बात यह है के ज्ञान एक महान रस है जिसे. बढ पचता है उस में विवेक विनय जिज्ञासा और श्रद्धा पैदा होती हैं जिससे मनुष्य अपना और जगत का कल्याण करता है जिसे बह नहीं पचता उस मे अभिमान अविनय वथासन्तोष और अश्रद्धा २३७ पैदां करता है। इन बीमारियों से मनुष्य अपना और जगत का अक- ल्याण करता है । उसके छिये ज्ञान पट के ऊपर छादे हुए अनाज की तरहें बोझ बनजात है । म. इसा इस तरह से असफलता से खिन थे ही इतने इक हि 4 उनके पास समाचार आया कि यूदन्ना बपतिस्मा देनेवाढे का सिर काट लिया. गया । यूढनना वहीं महात्मा. था जिससे म. ईसानि. बी मी वपतिस्मा लिया था । वह भी अनीति आर अत्या-चारों का वेरोध करता था और शासक वग भी पाप में खूत्र सना हुआ था इसलिये देरांदिसने उसे जेल में डाल दिया था. और अपनी रखेल खो के कहनें से उसने म. यूहना का सिर कटवा लिया था । यह समाचार काफी दुःखद ओर निराशाजनक था | _छोग॑ या ही सचाइ को नहीं समझते थे । उनमें इतना साहस भीं नहीं था कि अत्याचार के विरोध में किसी का साथ दे सकें |




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