अकबरी दरबार भाग - २ | Akabari Darbar Bhag - 2

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Akabari Darbar Bhag - 2 by रामचन्द्र वर्म्मा - Ramchnadra Varmma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१३ ) दिया । एक तो बे दोनों एक ही पेश सीस्तान के रहनेवातो थे दूसरे वैरमखाँ के समय के पुराने साथी थे ।. जब घृूद्ध हाजी मुहम्मदखाँ को लोग प्रतापी युवक खानजमाँ के सामने लाए तब दोनों एक दूसरे को देखकर बहुत हसे । दोनों हाथ फैला फैलाकर गले सिले । देर तक बैठकर आपस में रामशे हुए ।. चूद्ध हाजी सुद्दम्मदखाँ ने यह उपाय निकाला कि न तो तुम्हारे मन में किसी प्रकार का छत कपट या लमक- हरामी है श्रोर न किसी पराए बादशाह से यह भगडढ़ा है । तुम यहाँ रहे श्ार अपनी माता को मेरे साथ भेज दा ।. वे सहल में जायँँगी श्रोर बेगम के द्वारा निवेदन करेंगी । बाहर मैं साजूद ही हूँ। सारी बिगड़ी हुइ बात फिर से बल जायगीं। शत्र्रों के किए कुछ भी न हे सकेगा | श्रब पाठक जरा इस बात पर विचार करें कि झकबर ते जौानपुर में है श्रौर श्रासफखाँ तथा मजनू खाँ कड़ा सानिकपुर सें. सेनाएँ लिए हुए पड़े हैं। दरवार के नमकहरामा से आसफखाँ से कददलाया कि रानी दुर्गावती के खजानों का हिसाब समभ्साना होगा | चतलाओ अब हम लेप की कया खिलाओगे श्रौर चारागढ़ के माल सें से हम लोगों को क्या सेंट दागे । उसे खटका तो पदले से ही था । श्रब यह सँऐसा सुनकर वच्द श्रौर भी घबरा गया । तोगों से उसके सन सें यह संदेह थी उत्पन्न कर दिया कि खानजमाँ के सुकावशे में तुम्ह इस समय सेजना सानों छुम्ददारा सिर ही कट--




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