भारतीय संस्कृति और अहिंसा | Bhartiya Sanskriti Aur Ahinsa

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Bhartiya Sanskriti Aur Ahinsa by धर्मानन्द कोसम्वी - Dharmanand Kosmvi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ष कि इन श्रमणोंने यज्ञीय हिंसाका तो विरोध किया, ऊपर-ऊपरसे देखनेपर उन्होंने अहिंसा-घर्मका पालन करना भी जारी रखा; परन्तु उन्हीं अहिंसक गिने जानेवाले श्रमर्णोके जीवनमें पिछली औओरसे सूक्ष्म हिंसा--परिग्रहद, आलस्य, परावलम्बन ओर सुशामदके रूपसे--प्रविष्ट हो गई । इसी हिंसासे श्रवण निर्वी्य बने और अन्तमें उनको धर्म और राज्य दोनों सत्ताओंसे द्ाथ घोना पड़ा । धार्मिक हिंसा बंद होनेपर या कम दोनेपर भी न्राह्मण वर्गमें श्रवर्णीक जितनी ही, और कदा चित्‌ उससे भी अधिक, परिग्रह, स्ुद्ामद, पराश्रय और पारस्परिक ईंप्याकी सूक्ष्म हिंसा थी | श्रमण भी इस बाबत में च्युत हो गये, इसलिए, अहिंसाके तत्त्व- को बराबर विचारकर उसके द्वारा राष्ट्र ओर जातिका उत्थान करे, ऐसा कोई महापुर्ष छम्बे समयतक इस देशमें पेदा नहीं हुआ । पश्चिमकी पहलेसे ही जड़पूजक गौर हिंसाप्रिय संस्क्ृतिमें तो अहिंसा तत्वको अपनाकर उसके द्वारा मनुष्य जातिका व्यापक उत्कर्ष सिद्ध करनेकै लिए किसी समर्थतम पुरुषके होनेका बहुत ही कम सम्भव था । इतनेमें दी अन्तमें मद्दात्मा गाँधी हिन्दुस्तानकी, वस्तुतः विश्वकी, रंगभूमिके ऊपर अहिंसाका तत्व लेकर आये और उन्होंने इस तस्वक सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों अर्थका व्यापक रूपसे उपयोग करके उसके द्वारा केवल हिन्दुस्तानकी ही नहीं परन्ठ॒॒ वस्तुतः समग्र विदवकी जटिल समस्या सुल्झानेके लिए तथा समग्र मानव-जातिके पारस्परिक सम्बन्धों को मघुर तथा सुखद बनानेके लिए जगत्‌ने पहले कभी नहीं देखा, ऐसा प्रयोग प्रारम्भ किया है । लेखककी अह्दिंसा-तत््वके प्रति पुष्ठ श्रद्धा है, वह गाँघीजीके अहिंसाप्रयान प्रयोगकी मुक्तकंठसे प्रशंसा भी करता है । परन्तु साथ-द्दी-साथ लेखक यद्द भी मानता है कि इस अदह्दिंसा तच्वके साथ प्रज्ञाका तचव मिलना चाहिए, जिस तच्वकी कुछ कमी वह गाँधी- जीमें देखता है और जिस तत््वका विदिष्ट अस्तित्व वह साम्यवादके पुरस्कर्ताओंमें--खास करके कार्ल मार्क्स जैसोमें-- देखता है । साम्य- वादियोंकी प्रज्ञा और गॉँघीजीकी अहिंसा इन दोनोंके मिश्रणसे जगतके उद्घारकी पूरी आशाके साथ लेखक पुस्तक समास करता है । मेरी




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