तुलसी साहित्य के सर्वोत्तम अंश | Tulasi Sahitya Ke Sarvottam Ansh

Tulasi Sahitya Ke Sarvottam Ansh by डॉ. रामप्रसाद मिश्र - Dr. Ramprasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि . कठाओों को वेद, पुराण इत्यादि की निराधार निंदा में व्यक्त करने वाले कबीर इत्यादि अहंवादी संतों और अज्ञान तथा पूर्वाग्रह के कारण नारद, पाण्डव इत्यादि . को विकृत तथा कल्पित रूपों में प्रस्तुत करने वाले जायसी इत्यादि इंस्लामवादी . सूफ़ियों को महत्त्वहीन मानते हुए, उन्होंने इनका नामोल्लेख, नहीं किया; कितु स्पष्ट संकेत अवश्य दिए हैं--रामचरितमानस में, दोहावली में* । वस्तुत: _ कबीर इत्यादि की कोरी वेद निंदा, पुराण निंदा इत्यादि का कोई गम्भीर प्रभाव . न पड़ सकता था, न पड़ सका । यदि वे एक महान रहस्यवादी कवि न होते, तो _ कोरे सुधारक मात्र रह जाते और लोकेषणाग्रस्त सुधारकों से सारे इतिहास के बेतरह भरे पड़े होने के कारण, उनकी महिमा अत्यन्त संकुचित रहती । जायसी '. ।इंत्यादिं का प्रभाव तो नगण्य ही रहा । वर्तमान शताब्दी में आचार्य रामचम्द्र .. शुक्ल की विशुद्ध वैयक्तिक उमंग और तरंग के कारण, वे पाठ्यक्रमों में तो आ गए; कितु इसके अतिरिक्त और कुछ न सम्भव था, न सम्भव हुआ । यों, एक . भावुक महाकवि के रूप में वे आदरास्पद हैं; कितु उन पर उदारता का लबादा चढ़ाना वस्तुपरकता की स्पष्ट अवहेलना करना है और आचार्य शुक्ल ऐसी अव- . हेलना कर चुके हैं । हिन्दी में पिष्टपेषणवाद अथवा चर्वितचवंणवाद का कुछ ऐसा ज़ोर है कि इस अवहेलना को जानने अथवा मानने वाले एकाध ही दीखते _ हैँ। नकारात्मक और ध्वंसात्मक उद्गार साहित्य नहीं बन सकते, चाहे वे किसी . के हों। वस्तुपरक इतिहाप्त का प्रत्येक अध्येता जानता है. कि मुइनुद्दीन चिश्ती, निंजामुद्दीन, औलिया जेसे सूफ़ी फुकीरों से लेकर जायसी, नूरमुहम्मद जैसे सूफ़ी कवियों तक सब इस्लाम के प्रचारक या धर्मानन्‍्तरकर्तता थे । उक्त सोरठे में तुलसी ने उच्चतम-स्तरीय विरोधाभास अलंकार के साध्यम : से वाल्मीकि-रामायण के प्रशस्य एवं प्रत्याख्यानोपयुक्त दोनों ही पक्षों की ओर . चमत्कारपूर्ण इंगित कर दिया है। वाल्मीकि-रामायण की इतनी सक्षम एवं सुकष्म समीक्षा अन्यत्र दुलेंभ है । वाल्मीकि-रामायण का 'सखर-सुकोमल' होना तो स्पष्ट . ही है--इस स्फीत महाकाव्य में मानव-मन के कठोर-कोमलं सभी भांवों को विवृत . किया गया है। “'खर' पात्र तो इसमें है ही ! अतएव, विरोधाभास श्लेष-सम्पन्न भी है। किन्तु इसके 'दोषरहित-दूषणसहित' का विरोधाभास-श्लेष-संकर अधिक 1. कलिमल पग्रसे धर्म सब, लृप्त भए सदग्रन्थ । ..... दंभिन्‍्हू निज मति कल्पि करि, प्रगट किए बहु पंथ ॥ ._ श्रतिसंमत हरिभक्तिपथ,. संजुत-बिरति-बिबेक । तेहि न चलहि नर मोहबस, कत्पहि पंथ अनेक ॥। 2. साखी, सबदी, दोहरा, कहि किहनी, उपखान । भगति निरूपहि भगत कलि, निर्दोह वेद, पुरान ॥




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