अपभ्रंश काव्य परम्परा विद्यापति | Apbransh Kavya Prampara Vidyapati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हू. 2 एक विहूंगम दृष्टि डाली गई है श्रौर अपगम्र'श द्वारा विकसित एवं प्रतिपादित काव्यस्वरूपों, काव्यगत रूढियों पर प्रकाश डाला. गया है। श्रपश्नेश कार्व्यचितन ने संस्क्रत साहित्य द्वारा प्रतिपादित काव्यपरिभाषाग्ों को तथा उनके स्वरूपों को किस प्रकार परिवर्तित किया है, विकसित किया है, यही इस श्रध्याय का मुख विषय है । श्रपश्नंश द्वारा प्रचलित काश्यकूप... पुराण, चरिउ, कहा, रास श्रादि शब्दों की व्याख्या की गई है श्र इनमें प्राप्त विचारधारा का विश्लेषख किया गया है । 'छुढे झ्रध्याय में श्रपश्नश के परवर्ती रूप को हिंदी के आदि रूप में देखने का प्रयास है तथा सोदाहरण सिद्ध किया गया है कि हिंदी श्रपश्नश का ही विकसित रूप है । यही श्रपने परवर्ती रूप मे श्रवहट्ठ कहाती थी । यह श्रव्इट्ठ केवल अपभ्रंश का नवीन नाम है । श्रतः हिंदी के. काव्यात्सक रूप एवं भाषासंबंधी दोनों ही पक्षो पर. विचार किए गए हैं । सातवें श्रध्याय मे श्पवह्ददड' में कविता करनेवाले पुरब के कवि विद्यापति के विषय में विचार उपस्थित किए गए है । विद्यापत्ति के जीवनकाल में श्रपश्रंश का प्रचार साहित्य से शी उठ गया था श्र श्राघुनिक भारतीय श्रार्यभाषात्रों का स्वरूप मुखर हो उठा था । ये संक्रातिकाल के श्रंतिम कवि हैं । इनके बाद का साहित्य श्राधुनिक भापाशों की भाव- भंगिमा से युक्त है। उनकी पदावली की भाषा एक श्रोर हिंदी से साम्य रखती है तो दूसरी श्रोर बंगला से । यद्यपि निस्सदेह वह मैथिली का श्रादि रुप है । श्रत. इस विद्वानु की कविता एवं रचनाय्ों का संक्षिप्त वर्णनकर सूल सोतों पर प्रकाश डाला गया है। इस विपय में हमारा दृष्टिकोण यह है




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