प्रतीक - शास्त्र | Pratik Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संकेत “रस-संग्रह” में “संकेत-प्रिय-शद्भुया निजर्पाति प्रावोचदध्वश्रममू”--जिस पुंलिंग शब्द का प्रयोग किया गया हैँ, उसका भरें है “स्वाभिप्रायव्यव्जकचेप्टाविशेप .”, अपने अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए जो विशेप चेप्टा की जाय, जैसे किसी काम को मना करने के लिए आँख से इशारा करना । संकेत का श्रर्थ है परिभाषा, शैली, प्रज्ञप्ति, समय । इन सब ग्रर्वो में प्रतीक का उपयोग नहीं हो सकता । संकेत को लक्षण नहीं कह सकते । प्रतीक को लक्षण नहीं कह सकते । जिससे देखा जाय श्रौर जाना जाय, वह लक्षण है ।* जैसे, “यह वात कार्य-सिद्धि का लक्षण है ।” “उस आदमी के लंक्षण झ्रच्छे नहीं हैं ।” इसलिए किसी के श्रॉँख मटकाने के संकेत से उसके चरित्र का लक्षण जाना जा सकता है । किसी लक्षण से कोई संकेत प्राप्त हो सकता है । पर यह दोनों शब्द एक- दूसरे के पूरक हो सकते हैं, पर्यायवाची नहीं । इसलिए लक्षण प्रतीक नहीं हो सकता । १. संकेतकालमनसं विट॑ झात्वा' विदग्धया । हसन्नेच्रार्पिताकूतं लीलापथ्मं निमीलितम्‌ ॥--सादित्यदर्पण; ८.२९ 1 २. ऊक्ष्यते; शायते अनेनेति 1 की




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