चिन्तामणि | Chintamani

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Chintamani by रामचंद्र शुक्ल - Ramchandra Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्साह ३ प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यन्त प्रिय हो जायगी। हम चल पड़ेंगे छर हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्नता दिखाई देगी । यही प्रफुल्नता कठिन से कठिन क्मे। के साधन में भी देखी जाती है। वे कमं भी प्रिय हो जाते हैं शरीर अच्छे लगने लगते हैं। जब तक फल तक पहुँचानेवाला कर्म- पथ घ्च्छा न लगेगा तब तक केवल फल का भ्रच्छा लगना कुछ नहीं । फल की इच्छा मात्र हृदय में रखकर जो ग्रयत्न किया जायगा वह ब्प्रभावमय श्र झानन्द्शुन्य होने के कारण निर्जीव-सा होगा । . .. कर्म-रुचि-शून्य प्रयटन में कभी-कभी इतनी उतावली और झ्ाकु- लता द्ोती है कि मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर क्रम का निवोह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। मान लीजिए कि एक उँचे परत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति का नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि नीचे उतरन पर-सोने का ढ़ेर मिलेगा । यदि उसमे इतनी सजीवता है कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्ख-राशि के साथ एक प्रकार के मानसिक सयोग का श्वनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और झंग सचेष्ट हो गए तो उसे एक-एक सीढ़ी स्वणमयी दिखाई देगी एक-एक सीढ़ी उतरने में उसे झानन्द्‌ मिलता जायगा एक-एक क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा श्ौर वह प्रसन्नता के साथ उस स्वणुराशि तक पहुँचेगा । इस प्रकार उसके श्रयत्न-काल को भी फल-प्राप्ति-काल के ग्रन्तगत ही समभना चाहिए । इसके विरुद्ध यदि उसका हृदय दुबल होगा शरीर उसमें इच्छा मात्र ही उत्पन्न होकर रह जायगी तो ब्परभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे भट से नीचे पहुँच जाय । उसे एक-एक सीढ़ी उतरना बुरा मालूम होगा श्र ब्पाश्चये नहीं कि वह या तो द्वारकर बैठ जाय या लड़खड़ाकर सु है के बल गिर पड़े । फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न दोती है चित्त में यहीं ्ाता है कि कर्म बहुत कम या बहुत सरल करना




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