खां साहब | Khan Sahab

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Khan Sahab by ओंकार शरद - Omkar Sharad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खाँ साहब | भूखी शेरनी की तरह तड़प उठती | कहती--“/जब उसके माँ-बाप नहीं चाइते तो तुम क्‍यों उसे इतना अपने से लगाए रहते हो १ तुम देख लेना किसी दिन तुम्हारी यही मुहब्बत तुम्हारी नौकरी भी ले कर रहेगी | जिस दिन मो उसकी माँ का दिमाग बिगड़ा कि बस ! 7४7! ओऔर बीच में ही खाँ साहब कह उठते--“चाहे जो कुछ भी हो पर मुझसे यह नहीं हो सकता कि उस लड़के को अपने से दूर रख । ओर तू किस मूँह से कहती है, इतनी उम्र हो गई और गोद में क््चा . खिलाने की लालच पूरी न हुई ! अरे, तूने तो इतने सालों में एक चिड़ी का पूत भी नदीं पैदा किया 1 और इतना सुनते ही बीबी का क्रोध अपनी सीमा जैसे कूदकर लांघ जाताः! वे कहती “भने कुदं नदीं पैदा किया, और बे जो दो दो पहले ही यह साबित कर चुकी हैं कि तुम हमेशा ऐसे ही रहोगे'*' “ मुझे क्यों दोष देते हो !”' खाँ साहब इसका कुछ भी जवाब न देते और गुस्से में अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वहाँ से चल देते । यानी मुझे लेकर इसी तरह हंगामा होता, आँधी तूफान और बवंडर आते | परन्तु तब में काफी छोटा था | इन बातों की गहराइयों में उतरना कठिन था मेरे लिए । लेकिन आज सब याद है इससे सब कुछ समर लेता हूँ । इसके बाद क्‍या हुआ वह तो पूरी तरह याद नहीं, परन्तु कुछ ऐसा हुआ था कि मैं पढ़ाई पूरी करने इलाहाबाद चला आया था। मेरी वकालत को पढ़ाई चल रही थी, उसी दौरान में पिता जी के पास गया तो अचानक एक शाम के जब मैं अकेला बैठा था कि खाँ साहब आए और उन्हें देखते ही मैं मुस्कुरा पड़ा, पूछा--“'क्या কাই मिठाई-विठाई 1১, [ १७




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