वैशेषिक दर्शन | vaisheshik Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.52 MB
कुल पष्ठ :
56
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नमन गे साथ
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चैशेपिक दरोत 1 ः श्ड
के द्वारा पेट की झाग अन्न के पचाने के लिये इधर उधर चलाई
ज्ञाती है उसे 'समान' कहते हैं ! सुख और नाक के झारा जो बाददर
निकलता है उसे 'श्रासा” कद्चते हैं| (प्रशस्तपाद श्रीधरी टीका पू.४८)
घाण दृदय में, झपान खुदा में, समान नामें में, उदान कंगठ में,
थ्यान सर्यज्न शरीर में रद्दता है पेसा पुराणों का मत है ।
पृथिवी, जल, तेज, वायु कैसे उत्पन्न दोते हैं ।
झाकाश; काल, दिक और झात्मा इन चार: दव्यों के अवयव नददीं
दोति । ये अपने रूप में सबदा चने रदते हैं । इन में घटती बढ़ती
नद्दीं होती । इससे इनको नित्य माना है । इनकी उत्पत्ति नद्दीं दोती
नाश नद्दीं दोता । प्थिवीं आदि के अवयव होते हैं । इस से इनकी
उत्पत्ति मानी गई हैं ।
पृथ्वी आदि दन्यों की उत्पत्ति घ्रशस्तपाद भाष्य (पुष्ट ४८, ४९८)
में इस प्रकार चर्रित है ।
... ज्ञीवों के कर्मफल के भोग करने का समय जब छ्ाता डे तव
मदेदवर की उस भोग के अजुकूल सृष्टि करने की इच्छा दोती है ।
इस इच्छा के अज्ञुसार जीवों के अदप्ट के वल से बायु के परमाश-
झों में चलन उत्पन्न ोता है. 1 इस्त चलन से उन परमाणुञओं में
परस्पर संयोग होता है । दो दो परमारणुञ्ों के मिलने से द्खछक
उत्पन्न दोते हैं । तीन द्वर्छुक मिलने से जसरेरए। इस्ती क्रम से प्पक
मद्दाच, चायु उत्पन्न दोता है । उसी चाय में परमारणुझओं के पर-
रूपर संयोग से जल डयस्ुक चसरेर इत्यादि क्रम से महान जल-
निधि उत्पन्न घोता है । इस जल में पृथ्वी परमारुओं के परस्पर
सैयोग से द्यखकादि कम से महा पृथ्वी उत्पन्न छोती है । फिर उस्ती
जर्लनिथि में तेजस परमारणुञओं के परस्पर: संयोग से तेजस्र दवा
रछुकादि क्रम से महाच तेजोराशि उत्पन्न ोती है । इसी तरद चारों
मद्दाभूत उत्पन्न दोते हैं 1
यद्दी संक्षेप में वैशेयिकों का “* परमार्णुबाद * है । इसमें पद्चिली
बात विचारने वी यह है कि परमार मानने की कया झावदयकता है।
इस्त पर: वैशेपिकों का सिद्धान्त ऐसा है कि जितनी चाँजें दम देखते
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