वैशेषिक दर्शन | vaisheshik Darshan

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vaisheshik Darshan by महामहोपाध्याय गंगानाथ झा - Mahamahopadhyaya Ganganath Jha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नमन गे साथ लक नि चैशेपिक दरोत 1 ः श्ड के द्वारा पेट की झाग अन्न के पचाने के लिये इधर उधर चलाई ज्ञाती है उसे 'समान' कहते हैं ! सुख और नाक के झारा जो बाददर निकलता है उसे 'श्रासा” कद्चते हैं| (प्रशस्तपाद श्रीधरी टीका पू.४८) घाण दृदय में, झपान खुदा में, समान नामें में, उदान कंगठ में, थ्यान सर्यज्न शरीर में रद्दता है पेसा पुराणों का मत है । पृथिवी, जल, तेज, वायु कैसे उत्पन्न दोते हैं । झाकाश; काल, दिक और झात्मा इन चार: दव्यों के अवयव नददीं दोति । ये अपने रूप में सबदा चने रदते हैं । इन में घटती बढ़ती नद्दीं होती । इससे इनको नित्य माना है । इनकी उत्पत्ति नद्दीं दोती नाश नद्दीं दोता । प्थिवीं आदि के अवयव होते हैं । इस से इनकी उत्पत्ति मानी गई हैं । पृथ्वी आदि दन्यों की उत्पत्ति घ्रशस्तपाद भाष्य (पुष्ट ४८, ४९८) में इस प्रकार चर्रित है । ... ज्ञीवों के कर्मफल के भोग करने का समय जब छ्ाता डे तव मदेदवर की उस भोग के अजुकूल सृष्टि करने की इच्छा दोती है । इस इच्छा के अज्ञुसार जीवों के अदप्ट के वल से बायु के परमाश- झों में चलन उत्पन्न ोता है. 1 इस्त चलन से उन परमाणुञओं में परस्पर संयोग होता है । दो दो परमारणुञ्ों के मिलने से द्खछक उत्पन्न दोते हैं । तीन द्वर्छुक मिलने से जसरेरए। इस्ती क्रम से प्पक मद्दाच, चायु उत्पन्न दोता है । उसी चाय में परमारणुझओं के पर- रूपर संयोग से जल डयस्ुक चसरेर इत्यादि क्रम से महान जल- निधि उत्पन्न घोता है । इस जल में पृथ्वी परमारुओं के परस्पर सैयोग से द्यखकादि कम से महा पृथ्वी उत्पन्न छोती है । फिर उस्ती जर्लनिथि में तेजस परमारणुञओं के परस्पर: संयोग से तेजस्र दवा रछुकादि क्रम से महाच तेजोराशि उत्पन्न ोती है । इसी तरद चारों मद्दाभूत उत्पन्न दोते हैं 1 यद्दी संक्षेप में वैशेयिकों का “* परमार्णुबाद * है । इसमें पद्चिली बात विचारने वी यह है कि परमार मानने की कया झावदयकता है। इस्त पर: वैशेपिकों का सिद्धान्त ऐसा है कि जितनी चाँजें दम देखते




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