चारू चिन्तन | Charu Chintan

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Charu Chintan by गायत्री वैश्य - Gayatri Vaishyaडॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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7 तक को कविता का विपय वनाकर उन्हे सर्व से बनाने के लिए पुराने उपमानों कौ धूल भाडकर नए श्रयो से सजाया है, तथा अन्य नए उपमानो नए प्रतीको श्रौर नए एव्दो का प्रयोग प्रारम्भ किया है । फिर भी नया कवि किसी वर्गं को सोलहवी या उन्नीसवी सदी का मानकर अपनी कविता कौ नवीनता सिद्ध करना चाहता ६, श्रत उनका यहाँ उल्लेख करना पडा किन्तु है यह सिद्धान्त गलत ही । कविं की सप्रक्त वाणी ग्रुगो की परिधि तोडकर मानव हृदय को प्रभावित करने मे समर्थ होती है फिर भ्राज का पाठक तो उसका समकालीन है । किसी काव्यघारा की सफलता उसके विपुत्र साहित्य पर श्राघारित न होकर कध्य की महत्ता और कथन की प्रेपणीयता पर निर्मर होती है। नई फविता प्रपनी रसवत्ता शौर प्र्भवत्ता दोनो मे श्रमी तक पाठकों के बीच एक प्रश्न-चिह्न बनी हुई है। रसवत्ता या रसात्मकता का प्रसग छेढ़ना शायद यहाँ प्ननुपयुक्त होगा क्योकि साहित्यिक रस कौ वात श्राजकल पिदधडेपन की वात समभी जनि लगी है 1 रम श्रौर वैज्ञानिक युग मे क्या सम्बन्ध किन्तु सपम्रेषशीय होना तो कविता का धर्म है, उसकी शिकायत तो पाठक कवि से कर ही सक्ता है ? नए कवि का सारा प्रयत्व कविता के प्रेपणीय पक्ष पर था, उसके अन्य पक्ष उसकी दृष्टि मे गौण थे । अज्ञेय के शब्दों में जो व्यक्ति का श्रनुभूत है, उमे समष्टि तक फंसे उसकी सम्पूर्णता में पहुँचाया जाएं--यही पहली समस्या है जो प्रयोगगीलता को ललकारती है। इसके वाद इतर समस्याएँ हैं-कि वह पनुभूत ही कितना बड़ा या छोटा, घटिया या बटिया, सामाजिक या श्रसामाणिक, ऊष्वं या अध याम्नन्त या बहिमुखी है ।” परन्तु तीन दशको की लम्बी झ्वधि तक इस समस्या को नुनभाने वै प्रयत्ष मे मई कविता कितनी प्रप्रेपशीय हो गई है इसे सभी भ्रनुभव कर रहे हैं । भ्राज की कविताएँ पाठको को रेरे धरमायवघर प्रतीत हो रही है जिन्हें जानने श्रौर समभने के लिए गाइड था किसी पराविज्ञान के निष्णात पण्डित कौ श्रावश्यवता बवे कविताएँ एक विगेय भौर वहत हौ मकीणं वर्म मे भते हौ धयना गु महत्व सी हो, सामान्य पाठक की दृष्टि मे ये कवि को बहक के निवाय कुछ भर्व नले री) वह एन कविताओं को एक सिरे से दूसरे सिरे तक, ऊपर से नीचे तक, पर से प्रत्त तक भली-भांति देसने के वाद घड़ी रिक्तना घौर तिक्तता क्षा ग्रतुनन करता है! वि वह दस पाँच के बीच बैठकर पदता या सुनता ऐ तो 'द्वास्यरन घीर सर्वहोन मनोरणन' ॐ सिवाय घ्न्य कोई सार्यकता इनसे उपतब्ध नहीं होती है । निन्य ठी गि की गहन प्रनुमति की उपव्धि नहीं हैं, बह সাদি হাল से भो লী न्न पनन उपयब्पि समके । এ, 2. उद्हरुणार्प नदीततस परद्धि जगदीय কতুনর্রী জী ছল হি টিটি শা সালা ১] টা




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