शब्द साधना | Shabda Sadhana

Shabda Sadhana by रामचन्द्र वर्म्मा - Ramchnadra Varmma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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म्स्तावना जिन वस्तुश्नो से हम जन्म से ही परिचित रहते हैं उन्हे स्वाभाविक मान लेते हैं श्रौर उनका महत्व न समभकर प्राय उनकी श्वहेलना करते हैं । शब्द भी ऐसी ही वस्तु हैं । शब्दों का मदद कितना झ्ावश्यक है श्र हम सबके लिए वे कितने उपयोगी हैं इस पर जल्दी हमारा व्यान ही नहीं जाता | जैसा कि मैं श्रभी कह चुका हूँ बहुत-सी परिचित दस्तुश्नो की तरह शब्दों को भी हमने स्ाभाविक मान लिया है श्रौर हम साधारणत उस पर बहुत थ्यान देने की श्रावश्यकता नहीं समझते । एक तरह से यह झवश्य कद्दा जा सकता है कि शब्द स्वाभाविक हैं क्योंकि बिना किसी प्रकार की शिक्षा प्रा किये हर प्रकार के प्राणी कुछ न कुछ शब्द करते ही हैं श्रौर श्रपनी प्रकृति तथा श्रावश्यकता के श्रनुरूप दूसरे प्राणी उन शब्दों का अर्थ भी लगा लेते हैं जैसा उनके श्राचरण से सिंद्ध होता है । पर मनुष्य जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं वे स्वाभाविक नहीं कहे जा सकते क्योंकि दम श्रपने शब्दों की रचना छुत्रिम रूप से करते हैं श्रौर उनमे विशिष्ट झर्थों तथा भावों का श्रारोप करते हैं । पीटी- द्र-पीढी इन शब्दों का हम लगातार प्रचार करते हैं श्रौर उनके ठीक श्र्थ समकने के लिए समाज से श्राग्रह करते रहते हैं | श्रपनी मातृ-माषा से नैमर्गिक प्रेम रखते हुए भी उसके शुद्ध प्रयोग की तरफ से प्राय लोग उदासीन रहते हैं । यह बात दिन्दी भाषा-माषियों के ही लिए नहीं सबके लिए कही जा सकती है । हमारे लिए तो विशेष रूप से यह ठीक है क्यकि हमें इसकी शित्ता देने के लिए पाठशालाश्रों और विद्यालयों में कोई विशेष प्रबन्ध नहीं रहता । हम इसे साधारण प्रयोग मात्र से लीखा करते है । ऐसी श्रवस्था मे जो कोई हमे एतत्सम्बन्धी रहस्य समकने में सहायता दें वे हमारी कुत्ता श्रौर प्रशसा के पात्र हैं




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