कबीर साहेब की शब्दावली भाग - ४ | Kabir Saheb Ki Shabdavali Bhag - 4

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Kabir Saheb Ki Shabdavali Bhag - 4  by कबीरदास - Kabirdas

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कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राग गारा डरे ॥ राग गारी ॥ सतगुरू साहिब पाहुन आये, का ले कराँ मेहमानी जी ॥१॥ निरति के गेंडुवा गँगा जल पानी, परसे सयानी जी ९ प्रथम लालसा लुचट्ठ आई, जगत जलेबी आनी जी ॥३॥ भाव कि भाजी सील कि सेसा, बने कराल करेला जी ॥४॥ हिय के हींग हृदय के हरदी, तत्त के तेल बघारे जी ॥४॥ डारे घाइ विचार के जल से, करसन के करवाई जी ॥0६॥। यह जेवनार घट भीतर, सतगरू न्योति बलाये जी जेवन बैंठे साहिब मारे, उठत प्रेस रख जारी जी. ॥८॥। कहें कबीर गारी की महिमा, उपमा बरनि न जाई जी 0९॥ (९) जो ते अपने पिय की प्यारी, पिया कारन _... रो ॥ टेक ॥ जा के जगत की ककही , करम केस निसुवार करो । जा के तत के तेल , प्रेम कि डोरी से चोटी गुही ॥ ९1 जा के अलखं के काजर , बिरह कि बेदी लिलार दुईं। जा के नेह नथुनिया , गंज के लटकन शलि रहे ॥ २ ॥ जा के सुमति के सूत , दया हमेल हिये साहिं परी । जा के चित की चौंकी, अकिल के कँगना रहे ॥ श। जा के चोप की चुनरीं , ज्ञान पठैली चमकि रही । जा के तिल के छल्ले , सब्द के बाजि रहि 0 9॥ *पूरी ।




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