सांख्यदर्शन का इतिहास | Sankhya Darshan Ka Itihas

Sankhya Darshan Ka Itihas by पं. उदयवीर शास्त्री - Pt. Udayveer Sastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्दे सांख्यद्शेन का इतिदास उन्दोंने इस कार्य के लिये 'झपने समय के डयय का कभी 'झजलुभव नहीं किया । मैं उनका: हृदय से अत्यन्त अनुग्ददीत हूँ । रे इसीप्रकार मित्रों के स्नेद, 'और उत्साद्द प्रदान' से धीरे २ इस अ्रन्थ को लिखकर सन्‌ १६४७ के जुलाई मास में समाप्त कर चूका था, लादौर उन दिनों राजनेतिक 'आधारों की हुवा पाकर साम्प्रदार्थिक अग्नि में थू २ करके जल रहा था। इस साम्प्रदायिक 'झग्नि ने बाद में वास्तविक भौतिक 'अग्नि का रूप धारण कर लिया। जनता में भगदड़ मची हुई थी, प्रतिदिन कहीं वम, कहीं छुरे और कहीं '्ाग की घटना दोती रहती थीं । यह क्रम माचं १६४७४ से लेकर लगातार” 'चलता ही रह, फिसी व्यक्ति का जीवन उन दिनों निश्चिन्त 'और स्थिर न था, पर में इस प्न्थ को लादौर रहते हुए समाप्त कर लेना चाइता था; कदाचित लादौर से बादर जाकर मुमे इसके लिखे ज्ञाने की 'आशा न थी, इसलिये इन दृदयविदारक, सर्वथा व्यप्र कर देनेवाले उत्पातों के बीच में भी धीर 'और शान्तभाव से इस प्रन्थ को पूरा कर लेने में लगा रददा । किस तरद में नीला शुम्बद में अपने घर से निकलकर रावी रोड पर, गुरुदत्त भवन के समीप 'अपने कार्यालय में अतिदिन जाता 'और 'झाता था, सागे में झनेक स्थल अत्यन्त भयावद्द थे, कभी भी कोई दुघेटना दोसकती थी, पर एक आन्तरिक भावना मुझसे यह. सब करा रददी थी । इस प्रस्थके 'झन्तिम प्रकरणोंकी एक २ पक्ति, मैंने अपने जीवन को दयेली पर रखकर पूरी की है। कदाचित्‌ उन प'क्तियों के पढ़ने से दी पाठक इन भावनाश्रों तक न पहुंच सकेंगे । 'अन्तत' भगवान्‌ की दया से १४४७ की जुलाई समाप्त दोने से पहले दी में इस भ्रन्थ को पूरा कर सका । उस समय भीला शुम्बद की मस्जिद के पीछे की ओर 'अश्रलिद्द विशाल मूलचन्द बिह्दिट्न में मैं ही अकेशा अपने परिवार के साथ टिका हुआ था, घद्दां अन्य जितने परिवार रददते थे, सब बादर जा चुके थे, जुलाई का मद्दीना समाप्त हुआ, अगस्त के म्ारम्म में ही न मालूम किस 'अज्ञात प्रेरणा से मर रित हो मैं भी किसी तरह 'अपने परिवार को लेकर घर की ओर चल पढ़ा शोर सकुशल वद्दां पहुंच गया। 'अपना विशाल पुस्तकालय और घर का सामान सब वह्दीं रद्दा । घिचार था, कि लाहौर फिर वापस श्ञाना दी है । यद्यपि राजनैतिक छाधारों पर देश का विभाजन दो चुका था, पर लादौर लटकन्त में था। 'झगस्त का दूसरा सप्ताद प्रारम्भ होते ही जो स्थिति लाहौर की हुई, उससे भ्रत्येक व्यक्ति परिचित है, वद्दां वापस. जाने का दिन फिर न 'झाया, आगे यी कहपना करना ही व्ययें है । 'झभी श्री स्वामी देदामन्दतीथ जी व्दीं थे, वे शुरुदत्त भवन में रद्द रदे थे कई मास «के अनन्तर ज्ञात हुष्ा, कि वे १७ अगस्त को कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ सैनिक लारी में वहां से लाये जासके थे । 'विरजानन्द वैदिक संस्थान” का विशाल पुस्तकालय जो लगभग डेढ़ लाख रुपये के मूल्य का था, सच घटी रद्द गया, अनेक तैयार पन्थों की पाण्डलिपियां, जिनके प्रस्तुत करने में लगभग बीस सदद् रुपया व्यय दोचुका था, सब वह्दीं रह गई'। भाग्य से प्रस्तुत भन्थ की




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