अंगुत्तर निकाय भाग 2 | Anguttara-nikaya Part -2

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Anguttara-nikaya Part -2 by आनंद कोशल्यायन - Anand Kaushalayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्नुद्ध हारा इस वातकी घोषणा किये जानेपर कि अमुक आख्रव क्षीण हो गये हैं, कोई श्रमण या ब्राह्मण या देव या मार या ब्रह्मा अथवा विद्वमे कोई और यथार्थ-रूपसे' यह दोपारोपण कर सके कि इन आखस्रवोका क्षय नहीं किया गया है। भिक्षुओ, इस प्रकारका कोई लक्षण दिखाई न देनेके कारण ही, में कल्याण-युक्त, निर्भय, वैथारद्य-युक्त होकर विचरता हूँं। में इसका कोई लक्षण नही देखता कि सम्यक्‌- सम्बुद्ध हारा इस बातकी घोषणा किये जानेपर कि अमुक धर्म ( निर्वारण-मार्गंके ) वाघक घर्म हैं, कोई श्रमण या ब्राह्मण या देव या मार या ब्रह्मा अथवा विश्वमे कोई और यथार्थ रूपसे यह दोपारोपण कर सके कि उन उन धर्मोका सेवन अर्थात्‌ उन वातोके अनुसार आचरण (निर्वाण-मार्ग) मे वाघक नहीं होता। भिक्षुओ, इस प्रकारका कोई लक्षण दिखाई न देतेके कारण ही, में कल्याण-युक्त, निर्भय; वेशारद्य- युक्त होकर विचरता हूँ। में इसका कोई लक्षण नही देखता कि सम्यक्‌ सम्वुद्ध द्वारा इस वातकी घोषणा किये जानेपर कि अमुक अमुक घर्मोका पालन दु ख-क्षयका कारण 'होता हैं, कोई श्रमण या ब्राह्मण या देव या मार या ब्रह्मा अथवा विद्वमे कोई और ययार्थ रूपसे यह दोपारोपणकर सके कि अमुफ अमुकत धर्मोका पालन दु ख-क्षयका कारण नहीं होता। मिक्षुओं, इस प्रकारका कोई लक्षण दिखाई न देनेके कारण ही में कल्याणयुक्त, निर्भय, होकर विचरता हूँ। भिक्षुओ, ये चार तथागतके वैज्ञारय है, जिन युक्त होकर तथागत वृषभ-स्थानको प्राप्त होते है, परिपदोमें सिहनाद करते हू और ब्रह्मचक प्रर्वातित करते है । ये केचि ये वादपथा पुथुस्सिता यचिस्सिता समणब्राह्मणाच तथागत. पत्वान ते. भवन्ति विसारद वादपथातिवत्त यो. धम्मचकक अभिभूय्य केवल पवत्तयि सव्वभूतानुकम्पि त.. तादिस देवमनुस्ससेट्ट सत्ता नमस्सन्ति भवस्स पारगु [ जितने भी वहुतसे ऐसे वाद हैं, जिनमे श्रमण-ब्नाह्मण उलझे हुए है, वे वादोसे मुक्त, विशारद, तथागतके पास पहुँचनेपर ' शान्त' हो जाते है। सभी प्राणियोपर भअनुकम्पाकर जिन्होंने धर्म चक्र प्रवतित किया, देव-मनुष्य-श्रेष्ठ भव-पारगत वुद्धको प्राणी नमस्कार करते है। | ः




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