सोनगढ़ - समीक्षा | Songarh Samiksha

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Songarh Samiksha by नरेन्द्र - Narendraनीरज जैन - Neeraj Jain

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नीरज जैन - Neeraj Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ ६ श ॐ ४८ ५३ पर नही बैठने दिया जायेगा । = ५५ --मेरी समझ से इसमे अनु चित पो कुछ नहीं हैं । यह तो व्यवहार , की बात है । > र ह >€ ৫ 3, आपने वार-बार लिखा-और कहा-- টিন “जिनवाणी जड़ द्रव्य है । उसकी आराधना से किसी का कोई उपकार होने वाला नही है। जिनवाणी का राग पर स्‍त्री के राग के समान ही बध कराने वाला है । इतना ही नही, आपने मलाड के मन्दिर में पहले से रखे हुए भारतीय-ज्ञानपीठ और जीवराज-ग्रन्यमाला द्वारा प्रकाशितं वाईस मागम-ग्रन्थो को अनादरपूर्वक भपने मदिर से' निकाल फेंका । # समाज ने नैनवा मे आपको उन एकान्त-पोषक पुस्तकों को जिनमे यह सब लिखा था, और जिन्हें आप जिनवाणी का दर्जा दिलाना चाहते थे, समारोह-पूरंक उठाया और खण्डित मूर्तियों की तरह जल में विसर्जित कर दिया। भविष्य के लिये भी ऐसे साहित्य को मदिर मे नही रखने का निर्णय ले लिया ।” मे नहीं समभ प्राता कि इसमे अनीति क्या हुई? ` यह्‌ तो मिथ्यात्वे का प्रायश्चित ही हरा । ' ` अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का यही कारगर उपाय था। १८ । ` ५६ # ~ = 4. --“आपने असत्य-भाषण करने वाली एक अत्रती महिला को धरम की शोभा तथा मुनियो-आर्थिकाओं से श्रेष्ठ” कह कर उसके वचनो को “दिन्य-ध्वनि क! मत्र बताया । उसके तलुबे चाटने का श्रावको को परामर्श दिया।” 21




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