षड्दर्शनसमुच्चय | Saddarsanasamuccaya (1989) Ac 6240

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Saddarsanasamuccaya (1989) Ac 6240 by दलसुख मालवणीय - Dalsukh Malvneeya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० षड्दर्शनसमुच्चय दुर्नय बन जाता है यदि अपनी दृष्टिका ही आग्रह हो ( १,९१५ )। सभी नय मिथ्यादृष्टि होते हैं यदि दे स्वपक्षके साथ ही प्रतिबद्ध हैं किन्तु यदि बे परस्परको अपेक्षा रखते है तो सम्यक्‌ हो जाते हैं ( १,२१ ), दोनों तय माने जायें तब ही संसार-मोक्षको व्यवस्था बन सकतो है अन्यथा नहीं ( १,१७-२० ) | आचार्य सिद्धप्नेनने अपने इस मतकी पुष्टिके लिए सुन्दर उदाहरण दिया है। उसका निर्देश भी जरूरी है। उन्होंने कहा है कि कितने ही मूल्यवान्‌ वैडूर्यं आदि मणि हों किन्तु जबतक वे पुथक्‌-पृथक्‌ हैं 'रत्नावलि' के नामसे वंचित हो रहेगे । उसी प्रकार अपने-अपने मतोंके विषयमें ये नय कितने ही सुनिश्चित हों किन्तु जबतक वे अन्य-अन्य पक्षोंसे निरपेक्ष है वे 'सम्यग्दर्शन' नामसे वंचित ही रहेंगे । जिस प्रकार वे ही मणि जब अपने- अपने योग्य स्थानमें एक डोरेमें बंध जाते हैं तब अपने-अपने नामोंको छोड़कर एक 'रत्नावलि' नामकों धारण करते हैं, उसी प्रकार ये सभी नयवाद भी सब मिलकर अपने-अपने वक्तव्यके अनुरूप बस्तुदर्शनमें योग्य स्थान प्राप्त करके 'सम्यग्दर्शन' नामको प्राप्त कर लेते हैं और अपनी विद्ेेष संज्ञाका परित्याग करते हैं । ( १,२२-२५ ) । यही अनेकान्तवाद है । स्पष्ट है कि सन्मतिकार सिद्धसेनके मतसे नयोका सुनय भौर दुर्नय एेसा विभाग जरूरी है । तात्प इतना ही ह कि अन्य दर्शनोंके जो मत हैं यदि वे अनेकान्तवादके एक अंश रूपसे है तब तो सुनय हैं, अन्यथा दुर्नय । यहोसे नयवादके साथ अन्य दार्शनिक मतोके संग्ोजनको प्रक्रिया शुरू हुई है । स्वयं सिद्धसेन- ने इस प्रक्रियाका सूत्रपात মী হুল शब्दोमे कर दिया है--जितने वचनमागं है उतने ही नयवाद है । ओर जितने नयवाद ह उतने ही परसमय = परमतं है । कपिलदरशन द्रग्यार्थिक नयका वक्तव्य ह, मौर शुद्धोदनतनयका वाद परिशुद्ध पर्यायाथिक नयका वक्तव्य हं । तथा उल्क ( वैशेषिक ) मतमे दोनों नय स्वीकृत है फिर भो ये सभी 'मिध्यात्व' है क्योकि अपने-अपने विषयको प्राधान्य देते है ओौर परस्पर निरपेक्ष है । सारांश कि यदि वे अन्य मतसापेक्ष हो तब हो सम्यग्दर्शन म॑ज्ञाके योग्य है, अन्यथा नहीं ( ३,४७-४९) । सिद्धसेनकी इस सूचनाको लेकर तत्कालीन सभी मतोंका संग्रह विक्रम पाँचवी शत्रीके पूर्वार्धमें आचार्य मल्लवादीने अपने नयचक्रमें कर दिया है' । मल्‍लवादीका यह ग्रन्थ अपने कालकी अद्वितीय कृति कही जां सकती है । वर्तमानमें अनुपलूब्ध ग्रन्थ और मतोंका परिचय केवल इस नयचक्रसे इसलिए मिलता है कि आचायं मल्लवादीभे अपने कारुतक विकसित एक भी प्रधान मतको छोडा नहीं । अतएव अपने-अपने मतको प्रदशित करनेवाले तत्‌-तत्‌ दर्शनोंके ग्रन्थोंकी अपेक्षा सर्वसंग्राहक्‌ यह ग्रन्थ षड्दशंनसमुच्चय जैसे ग्रन्थोंकी पूर्व भूमिका रूप बन जाता ह । नयचक्रकी रचनाकी जो विदोषता ह वह उसके नामसे ही सुचित हो जाती है । नयोंका अर्थात्‌ तत्कालीन नाना बादोंका यह चक्र है। चक्रकी कल्पनाके पीछे आचार्यका आशय यह है कि कोई भी मत अपने-आपमें पूर्ण नही है। जिस प्रकार उस मतकी स्थापना दलीलोंसे हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्यथापन भी विरुद्ध मतकी दलीलोंसे हो सकता ই | स्थापना-उत्थापनाका यह चक्र चलता रहता है। अतएवं अनेकान्तवादमें ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें तब ही उनका औचित्य हैं, अन्यथा नहीं । इसी आशयको सिद्ध करनेके लिए आचार्यने क्रमशः एक-एक मत लेकर उसकी स्थापना की है भौर अन्य मतसे उसका निराकरण करके अन्यमतकी स्थापना की गयी हैं। तब तीसरा मत उसकी भी उत्थापना करके अपनी स्थापना करता है--हस प्रकार अन्तिम मत जब अपनी स्थापना करता है तब प्रथम मत उसोका निराकरण करके अपनो स्थापना करता है--इस प्रकार चक्रका एक परिवर्त पूरा हुआ किन्तु चक्रका चलना यहीं समाप्त नहीं होता, पूर्वोक्त प्रक्रियाका पुनरावर्तन होता है । अपन काके जिन मतोका संग्रह नयचक्रमें है वे ये हैं--अज्ञानवाद, पुरुषाहत, नियतिवाद, कालवाद, स्‍्तभाववाद, भाववाद, प्र कृति-पुरुषवाद, दवरवाद, कर्मवाद, द्रव्य-क्रियावाद, षड्पदार्थवाद, स्याद्वाद, शब्दा- देत, श्नानवाद, सामान्यवाद, अपोहबाद, अवक्तव्यवाद, रूपादिसमुदायवाद, क्षणिकवाद, शून्यवाद--इन मुख्य १. इसके विशेष परिचयके लिए देखौ, आगमयुगका जैनदर्शन ( आगरा ) पृ० २९६ ।




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