रस - मीमांसा | Ras Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य काव्य की साधना मनुष्य अपने भावों, विचारों ओर व्यापारों को लिए दिए दुसरों के भावों, विचारों ओर व्यापारों के साथ कहीं मिल्ातवा ओर कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है ओर इसी करें जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में, यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत्‌। जब तक कोई अपनी प्रथक्‌ सत्ता की भावना को ऊपर किए इस क्षेत्र के नाना रूपों ओर व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, खुख-ढुःख आदि से संबद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी चह अपनी प्थक्‌ सत्ता की धारणा से छूटकर--अपने आपको कुल भूलकर--विशुद्ध अनुभूत्ति सात्र रह जांता है तब वह हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान- दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये सनुष्य




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