विविधा भाग - १ | Vividha Bhag - 1

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Vividha Bhag - 1  by डॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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6 विविधा कर ली धी। वही लोग, जो पहले उन पर हसते थे, उनका धैर्य ओर साहस देखकर उनकी सहायता के लिए निकल पड़ थे। मनोवृत्ति का यह परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। हमे किसी से लड़ाई करने की ज़रूरत नही, हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभूति प्राप्त करना है, उसकी मनोवृत्तियों को बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जाएँगे, उसी दिन स्वराज्य का सूर्य उदय होगा। तीन दिन गुज्ञर गए थे। बीरबल सिंह अपने कमरे मे बैठे चाय पी रहे थे ओर उनकी पत्नी मिट्ठनबाई शिशु को गोद में लिए सामने खड़ी थी। बीरबल सिंह ने कहा - तै क्या करता उस वक्त। पीछे डी.एस.पी. खड़ा था। अगर उन्हे रास्ता दे देता, तो अपनी जान मुसीबत मे फसती। मिट्ठनबाई ने सिर हिलाकर कहा - तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर इंड न चलाने देते। तुम्हारा काम आदमियों पर डंडे चलाना है? तुम ज़्यादा से ज्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हे अपराधियों को बेत लगाने का काम दिया जाए, तो शायद तुम्हें बड़ा आनंद आएगा, क्‍यों? बीरबल सिंह ने खिसियाकर कहा - तुम तो बात नहीं समझती हो । मिट्ठनबाई -- मै खूब समझती हूँ। डी.एस.पी. पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा, ऐसी कारगुज़ारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। कया तुम समझते हो, उस दल में कोई भला आदमी न था? उसमें कितने आदमी ऐसे थे, जो तुम्हारे जैसों को नौकर रख सकते हैं। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे बढ़े हुए होंगे। मगर तुम उन पर डंडे चला रहे थे और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जवॉमर्दी ! बीरबल सिंह ने बेहयाई की हँसी के साथ कहा - डी.एस.पी. ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच | दरोगाजी ने समझा था कि यह सूचना देकर वह मिट्ठनबाई को खुश कर देंगे। सज्जनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से नहीं, ज़बान से कही जाती हैं। स्वार्थ दिल की गहराइयों में बैठा होता है। वह गंभीर विचार का विषय है।




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