समीक्षा के सिद्धान्त | Samiksha Ke Siddhant
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
218
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ | |. समीक्षा के सिद्धान्त
आत्म-विस्तार, सन्तति-विस्तार अथवा बंश-रक्षा के सांस्कृतिक विकास कै
परिणाम से ये स्थायी भाव विकसित हुए है---
रस स्थायी भाव
श्रृद्खार रति
हास्य हँसी
करण शोक
ग्रदुभुत पराश्चयं
प्रभिष्यक्तिके दो रूप
प्रात्म-रक्ना-सम्बन्धी जो राग-तत्त्व अथवा स्थायी भाव हैं उनमें एक आर
विशेषता यह विदित होती है कि इनमें से दो तो ग्रात्म-संकट सम्बन्धी हैं---
भय और वीभत्स। হীন दो निवारणा-सम्बन्धी मतोभाव हैं--बीर और
रौद्र |
ग्रत्म-विस्तार-पम्बन्धी मतोभावों में इतनी स्पष्टता नही, क्योकि ये भाव
इतने साधारण नहीं; जटिल हैं | यहाँ तक कि रति के जैसा स्पष्ट भौर उहाम
भाव भी जटिल श्र व्यापक है । क्योंकि इत मनोभावों का सम्बन्ध ही मूलतः
सामाजिक है भ्र्थात समाज-आश्रित है, व्यक्ति-श्राश्चित ही नहीं । '
.. आत्म-रक्षा की भावता संकुचित प्रवृत्ति का रूप ग्रहणा करती है और 'स्थ'
ग्रथवा स्वार्थ में सीमित हो जाती है । उसके विरुद्ध आत्म-विस्तार का भाव
उदार तथा प्रसार की भावना से सम्बन्ध रखता है। पहले भाव का मूल है
'बचो' । चाहे पलायन से, चाहें श्राक्रमण से । दूसरे भाव का मूल है 'मिलो' ।
फलतः प्रथम चार स्थायी भाव मृत्रतः “व्यक्ति! से सम्बन्धित हैं भौर शेष चार
'অমাঅ' के मूल हैं। इसी कारण ये आत्म-विस्तारक भाव जटिल हैं श्रौर थे
मनुष्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के प्रेरक है । ा
'बचो' और 'मिलों' के मूल भावों को 'भय' और 'रति' के वो शास्त्रीय
नाम दिये जा सकते हैं | आत्म-रक्षा 'भय-विह्नल' होती है। आत्म-विस्तार
“रति-विह्नुल' । व्यक्ति का मूल है भय; समाज का मूल है रति । भय-रति के
भरमन्वयसे व्यक्ति भौर उसका समाज बना है । दोनों साथ-साथ चने ह । अर
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