राजस्थानी विवाह | Rajasthani Vivah

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डॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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राधेश्याम त्रिपाठी - Radheshyam Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्र इस रूप-लावण्य की शोभा का एक सफल प्रतीक है रवि इस श्राश्रम में प्रवेश पाने का धमं-विहित सच्चा मार्ग है । विवाह के ढ्वारा मानव पाशविक भावनाश्रो से ऊपर उठकर देवत्व के झ्रासन की श्रोर श्रग्रसर होता है। कामास्थत्ता के कारण भगिनीत्व तथा मातृत्व तक को विस्मृत कर जाने वाले पणुश्नों पर यहीं मानव ने विजय-दुन्दुमभि का उदुघोप किया है। मानव भर पशु का अन्तर इस परीक्षा-द्वार पर श्राकर रुपण्ट होता है । इसी गेह मे मानव को निखिल सृष्टि में प्मानव के श्रेष्ठ पद की उपलब्धि हुई है। यही कारण है कि विवाह के श्रादश एवं पवित्र बन्धन की श्रेष्ठता पर हमारे धर्मशास्त्रो मे उपदेश की विभिन्‍न रंगीन रेखाएँ खीची गई है । विवाह गृहस्थ जीवन के प्रवेश का प्रथम सोपान है । गृहस्थरूपी रथ मे बैठकर मानव श्रपनी गृहिखी के साथ इहलोक की यात्रा करता हुमा एक श्रदृश्य शक्ति की इच्छा पूर्ति करता है । गृहस्थाश्रमरूपी रथ के स्त्री-पुरुष दो चक़े है । इस रथ को उचित रूप से गतिशील रखन तथा जीवन के गन्तव्य तक पहुँचने के लिये प्रवेंजो ने विवाह-सस्कार को मान्यता दी है । विवाह श्रात्मोत्सगं का श्रेष्ठ साधन स्वीकार किया गया है। मातृत्व की महत्ता श्रौर पवित्रता का मजुल- मोती वेवाहिक सीपी में ही समाया हुआ है। पच्चीस वर्ष ब्रह्मचय ब्रत का पालन करने के पश्चात ब्रह्मचारी श्रौर ब्रह्मचारिणी जब गृहस्थरथ के चक्र बनकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे तब गृहस्थरूपी रथ सुचारु रूप से जीवन की पगडण्डी पर श्रग्रसर होने मे सुगमता पाता था तथा भविष्य मे वे सामाजिक जीवन-विधान की परम्परा का सुगमता से पालन करन मे समय हो सकते थे ।




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